२८४ राष्ट्रीयता और समाजवाद अंशोंमें समाजवादके विरोधियोंद्वारा जानबूझकर गलतफहमी पैदा करनेवाले प्रयत्नोके कारण, कुछ लोगोमे यह भ्रम फैल गया है कि मार्क्सवादियोंके मतानुसार केवल आर्थिक तत्त्व ही सामाजिक जीवनके विविध रूपोको यन्त्रवत् निश्चित करता है और निरंकुश सर्वशक्तिमान् सत्ताकी भाँति जिधर चाहता है उनकी नकेल पकड़कर मोडता है। एगेल्सने खुद सन् १८६० मे “सोशलिस्ट एकेडेमी" के सम्पादकोको दो पत्र लिखे थे जिनमें उन्होने इस मिथ्या धारणाका खण्डन किया है और बताया है कि समाजके विकासमे विचारो- के महत्त्वको मार्क्सने इन्कार नही किया है ; उन्होने सिर्फ यह बतलाया है कि प्रधान भाग आर्थिक तत्त्वका ही होता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसके पूर्व कि हम उदाहरण देकर यह समझाये कि किस प्रकार उत्पादनके नये साधनोके व्यापक रूपमे प्रचलित होने और वर्गसंघर्पके चरमसीमापर पहुँचनेसे सामाजिक क्रान्तियाँ घटित होती रही है यह प्रासङ्गिक जान पडता है कि सक्षेपमे द्वन्द्वात्मक भौतिकवादकी व्याख्या कर दी जाय । मार्क्सवादके इस दार्शनिक पहलूकी जानकारीके बिना हम सामाजिक विकासके नियमोको उनके यथार्थरूपमे नही समझ सकते । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद वह दार्शनिक प्रणाली ( methodology ) है जो हमे उन आन्तरिक नियमोका ज्ञान कराती है जिनके अनुसार इस भौतिक जगतका विकास होता है, इस भौतिक जगत्के रहनेवाले प्राणियोका विकास होता है और उनके विचारोमे रूपान्तर होता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद दृश्य जगत्की गति ( motion ) के नियमोकी व्याख्या करता है। भौतिक अद्वैतवाद द्वन्द्वात्मक भौतिकवादके अनुसार जगत्का जो कुछ व्यापार हमे इन्द्रियगोचर होता होता है वह किसी ऐसे स्वतन्त्र निरकुश और अलौकिक चेतन-सत्ताकी लीला या माया नही है जिसके सहारे या जिसकी आज्ञासे प्रकृति अपनी सृष्टि रचती है। मार्क्सवादके अनुसार, इसके विपरीत, भौतिक पदार्थ ( matter ) ही वह आदिम वीज सत्ता है जिसका रूपान्तर यह दृप्ट जगत् है । चेतनाका जो स्वरूप हम देखते है वह भौतिक पदार्थक रूपान्तरके क्रममे ही एक अवस्था-विशेपमे पैदा होता है। मार्क्सवादी दर्शन जड़ और चेतनकी पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र सत्ता-द्वैतवाद-नही मानता; वह वतलाता है कि आदिम अवस्थासे अबतक पदार्थका जो रूपान्तर हुआ है उसके क्रमसे ही अवस्था विशेपमे चेतनाका प्रादुर्भाव होता है, अर्थात् चेतना विकासमान पदार्थका एक गुण है । दूसरे शब्दोमे हम मार्क्सवादी दर्शनको पदार्थवादी अद्वैतवाद कह सकते है । निरन्तर परिवर्तन आदिम पदार्थोके (जिसके विकासका ही स्वरूप जगत् है ) रूपान्तरके क्रमका विचार करनेपर पहली वात जो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद बतलाता है वह यह कि जगत्का सारा व्यापार शाश्वत परिवर्तनके क्रममे है । ससारकी हर एक वस्तुमे हर क्षण परिवर्तन
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