द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद २८३ है-तो हमारा यह मतलब कदापि नही होता कि समाजका समूचा विकास पूर्ण रूपसे उत्पादन-सम्वन्धोपर ही निर्भर होता है और उसपर विचारोका कोई प्रभाव नही पडता । किसी समय' समाजमे जो दर्शन, धर्म, कानून अादि प्रचलित है समाजके आगेके विकासमे इन सवका भी काफी प्रभाव पड़ता है, किन्तु साधारणतया इनका प्रभाव आर्थिक परिस्थिति- के प्रभावके मुकाबले बहुत कम पडता है । विचारोंका प्रभाव किसी समाजकी विचार-प्रणालियोमे अर्थात् प्रचलित दर्शन, धर्म, राजनीति आदिमे उस समय आधारभूत परिवर्तन होता है जब कि समाजकी आर्थिक रचनामे आधारभूत परिवर्तन होता है। इस प्रकार जव एक विशेष प्रकारकी विचार-परम्परा जड़ पकड़ लेती है तो आगे समाजका जैसा विकास होता है उसपर उसकी छाप पड़ती ही है, किन्तु यह विशेष प्रकारकी विचार-परम्परा प्रधानत स्वयं एक विशेष प्रकारकी आर्थिक रचनापर आश्रित होती है । संक्षेपमे जब-जब समाज तरक्कीकी एक मजिलसे दूसरी मजिलपर जाता रहा है तब-तव विचार-प्रणालियोकी दिशा प्रधानत. उस समयकी आर्थिक रचनाके द्वारा निर्धारित होती रही है । आजकल तो आर्थिक तत्त्वका यह प्रभाव बहुतसे पूंजीवादी विद्वान् भी बहुत अशोंतक मानने लगे है । पर मार्क्स के समयमे लोग सामाजिक जीवनके विकासपर उसके आर्थिक जीवनका यह प्रभाव नही स्वीकार करते थे। उस समयके विद्वानोका यह ख्याल था, और आजकलके भी अनेक विद्वानोका है, कि समाजका विकास केवल मनोवैज्ञानिक तत्त्वोंके अाधारपर ही होता है । एक महापुरुप पैदा होता है, वह समाजके हितको दृष्टिमे रखते हुए कुछ सामाजिक सिद्धान्तोको प्रतिपादित करता है, जिसके पीछे लोग चलते हैं। समयकी एक निश्चित अवधि वीत चुकनेके उपरान्त कुछ दूसरे महापुरुष पैदा होते है और उनके द्वारा फिर नये सिद्धान्त सामने रखे जाते है और इस प्रकारके सिद्धान्तोका प्रचलन होनेसे ही सामाजिक विकास होता है । जव नये महापुरुष पैदा होकर नये प्रकारके सिद्धान्त सामने रखते है तो इन नये सिद्धान्तोके आधारपर समाजका सारा ढाँचा- जिसमें आर्थिक ढाँचा भी शामिल है-फिर नये सिरेसे सगठित होता है। इस प्रकारसे समाजके विकासका क्रम चालू रहता है । मार्क्सने बतलाया कि किसी विशेष परिस्थितिमें विशेष प्रकारके नये सिद्धान्तोका प्रतिपादन करनेवाले महापुरुप स्वयं वदली हुई परि परिस्थितियोके परिणाम होते है और उनका सिद्धान्त भी समाजमे इसीलिए स्वीकार किया जाता है कि वह नयी परिस्थितियोके अनुकूल होता है । एक गलतफहमी जिस जमानेमे समाजके विकासकी विवेचना करते हुए विद्वान् लोग नये परिवर्तनोका सारा श्रेय विचारोको ही देते थे और सबसे महत्त्वपूर्ण और आधारभूत तत्त्व अर्थात् आर्थिक परिस्थितिकी उपेक्षा करते थे उस समय मार्क्स और उनके अनुयायियोके लिए यह स्वाभाविक ही था कि वे आर्थिक तत्वके प्रभावपर अधिक जोर देते। किन्तु अज्ञानवश और बहुत
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