२८२ राष्ट्रीयता और समाजवाद जर्जर हो रहा है । साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति किसी क्षेत्रको क्यों न लें, हम देखेंगे कि विकासको गति रुक गयी है और सभी क्षेत्रोमे किंकर्तव्यविमूढताका साम्राज्य हो रहा है । जव समाजकी आधारभूत आर्थिक प्रणाली उन्नति करती रहती है तभी उसके साथ दूसरे विचार-क्षेत्रोमे भी उन्नति होती है और यह स्वाभाविक ही है कि जब आधार ही क्षीण और जर्जर हो जाय तो ऊपरी ढाँचा भी हिल जाय । राजनीतिके क्षेत्रका विचार करनेपर हम देखते है कि ग्राज प्रजातन्त्रका ह्राम हो रहा है और उसके स्थानपर तानाशाही ( dictatorship ) की वृद्धि हो रही है तथा सकुचित राष्ट्रीयताकी भावना जोर पकड़ रही है। आर्थिक क्षेत्रमे मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारका स्थान राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता ( aut- archy ) का सिद्धान्त ले रहा है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीयता और 'भ्रातृभावके विचारोका प्रसार रुक गया है और सभी बड़े राष्ट्र एक महायुद्धकी तैयारीमे लगे हुए है जो कि किसी क्षण भी घटित हो सकता है । दर्शनके क्षेत्रमे रहस्यवादकी वृद्धिके रूपमें प्रतिगामिताका प्रचार हो रहा है । साहित्यमे आर्थिक रचनाका प्रतिविम्ब निराशावाद, संशयवाद और स्वप्नलोकवादके रूपमे मिलता है। कवि और लेखक जीवनकी कटु यथार्थतासे घबराकर सुखद स्वप्नो और कल्पनायोका मानसिक विश्व-निर्माण कर मनको सान्त्वना दे रहे है । इतिहासमे खोजकी प्रवृत्ति रुक गयी है । संक्षेपमे, जिस उत्साह और लगनके साथ पूंजीवादके विकासके कालमे उस प्रणालीके सार्थक विद्वान् काम कर रहे थे उस उत्साह और लगनका आज कहीं भी पता नहीं चलता। इसके विपरीत, सोवियत रूसमे, जहाँ एक नयी समाजवादी आर्थिक रचनाका निर्माण हो रहा है, लोगोके दिल एक नये उत्साहसे भरे हुए है । जहाँ पूंजीवादी देशोमें लोग अपने भविष्यके वारेमे सशक है, उसे अन्धकारमय समझते है, वहाँ रूसमे लोगोके मन एक नयी अाशा, एक नयी उमंगसे भरे हुए है और वे अपने भविप्यको सुखद एव उज्ज्वल समझते है । चारो ओरसे पूंजीवादी राष्ट्रोसे घिरे होने और पडोसी फासिस्ट राष्ट्रोंके आक्रमणका भय प्रतिक्षण बने रहनेके कारण उसके निवासियोको अपनी रक्षाकी तैयारीके लिए बहुत बड़ा त्याग करना पड़ रहा है। राष्ट्रीय सम्पत्तिका बहुत बड़ा अंश आज वे सैनिक तैयारीकी भेट चढानेको वाध्य है । किन्तु पूंजीवादी देणोकी भाँति यह त्याग करते हुए उन्हे खेद और सन्ताप नही हो रहा है । उनका विश्वास है कि वर्तमानके सुखोके इस त्यागके द्वारा वे अधिक समृद्ध और सुखद भविप्यका निर्माण कर रहे है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद जब हम कहते है कि समाजके अार्थिक ढाँचेकी बुनियादपर ही मनुष्यकी अन्य सभी क्षेत्रोकी प्रणालीका ढाँचा खड़ा होता है-किसी समयका साहित्य, धर्म, राजनीति, कानून और दर्शन आदि उस समयके समाजमे प्रचलित आर्थिक ढाँचेके द्वारा निर्धारित होता
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