२८० राष्ट्रीयता और समाजवाद स्मिथ, रिकार्डो आदि उस विचारधाराके अर्थशास्त्रियोकी प्रधानता हुई जिन्होने यह प्रति- पादित किया कि व्यापारकी वृद्धि और मजदूरोका गोषण करके अंद्योगीकरणकी वृद्धि करनेमे ही देशको समृद्धि है । कानूनमें अव वंगमर्यादा और स्तवेका महत्त्व जाता रहा और आपसके एकरारकी आजादी ( freedom of contract ) पर जोर दिया जाने लगा। धर्म और प्राचार-नीतिक क्षेवमें अब 'शास्त्रवाक्य प्रमाणम्' माननेकी प्रथा लुप्त होने लगी और लोग हर बातको तर्क और विवेककी कसोटीपर कमने लगे । वासनिक विचारोमे भी परिवर्तन हुा । अध्यात्मवादके स्थानपर भौतिकवादका प्रसार तुया । वर्कले, स्पिनोजा, फायरवाख आदि नये-नये दार्शनिकोने बताया कि यह दृश्य जगत् अलौकिक पराभावनाकी माया न होकर प्रकृतिका ही विकास है । साहित्यके क्षेन्नमें अब यथार्थवाद- की प्रधानता हुई। इन परिवर्तनोका महत्त्व हम तवतक ठीक नहीं समझ सकते जबतक हम अपने मामने इस सत्यको रखकर न चलें कि इस समय यूरोपके आर्थिक ढांचेमे परिवर्तन होता है- सामन्तशाहीके स्थानपर पूंजीवादकी उत्पत्ति होती है । जो लोग इतिहासकी भांतिकवादी व्याख्याको स्वीकार करके नहीं चलते वे इस प्रश्नका उत्तर नहीं दे पाते कि आखिर ये परिवर्तन जो यूरोपीय समाजकी विचारधारामें देख पड़ते है अलग-अलग और पहले या बादने क्यों हुए ? ऐडम स्मिथका जन्म सौ साल पहले क्यो नही हुमा ? या लूथर साहब एक सीके वाद क्यो नही पैदा हुए ? इतिहासकी भौतिकवादी व्याख्या ही इन महान् परिवर्तनोंके रहस्यकी व्याख्या करनेवाली एकमात्न कुजी है । यूरोपमे सामन्तगही पद्धतिके स्थानपर पूंजीवादी पद्धतिके प्रसार होनेपर नानव विचारधाराकी विभिन्न प्रणालियोमे हम परिवर्तन होते देखते है । दूसरे युगों और दूसरे देशोका अध्ययन भी इसी दृष्टिकोणसे करके ही सामाजिक परिवर्तनोंका रूप समझा जा सकता है । मार्सवादका उदय इसी जमानेमें जब कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणालीका व्यापक प्रसार हो जाता है, हम समाजको प्रगतिके नियमोका वैज्ञानिक विवेचन करनेवाली एक नयी विचारधाराका अर्थात् मार्क्सवादका प्रादुर्भाव देखते है । सामाजिक विकासको मीमासा करते हुए पूंजीवादी उत्पादन-प्रणालीके विकासके नियमोका अध्ययन करके कार्ल मार्क्सने यह बतलाया कि संसारका विकास समाजवादकी अोर हो रहा है और यह नयी स्थिति वर्ग- संघर्पके जरिये ही आयेगी । मार्क्सने सामाजिक विकासके जो जो नियम हमारे सामने रक्खे वे सब प्राचीन कालसे ही समाजमे काम करते चले आ रहे थे। समाजकी आर्थिक- रचनाके अनुसार उसकी दूसरी विचारप्रणालियाँ बनती थी, प्रकृतिकी शक्तियोका नवीन नान होनेपर और परिणामस्वल्प उत्पादक शक्तियोका स्वल्प वदलनेपर, समाजका आर्थिक ढाँचा बदलता रहा है और उसके साथ ही समाजकी रचनामें सर्वागीण परिवर्तन होता रहा है। यह परिवर्तन द्वन्द्वमान ढंगसे ( dialectically ) वर्ग-संघर्पके जरिये होता रहा है । मासकी विशेपता यह थी कि उसने, अपने साथी एंगेल्सकी सहायतासे वैज्ञानिक ढंगसे इन नियमोकी विवेचना करते हुए, उन्हें एक विचार-पद्धतिमें
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