इतिहासकी भौतिक व्याख्या २७७ है । फलस्वरूप समाजके ढाँचेमे आधारभूत परिवर्तनकी ऐतिहासिक आवश्यकता क्रान्तिके द्वारा ही पूर्ण होती है । इतिहासको भौतिक व्याख्या यहाँपर यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि मनुष्य के विविध कार्यक्षेत्रोंमे भी विकासके लिए इन्ही क्रान्तियोके जरिये रास्ता साफ होता रहा है । एक सीमातक उन्नति करनेके वाद उत्पादनके क्षेत्रकी भाँति ही दूसरे क्षेत्रोमे भी तभी उन्नति हो सकती है जव कि आर्थिक उत्पादनके ढाँचेमे आधारभूत परिवर्तन हो । दूसरे शब्दोमे समाजका अार्थिक ढाँचा ही वह आधार या बुनियाद है जिसपर मनुप्यके अन्य कार्यक्षेत्रोकी प्रणालियाँ-राजनीति, आचारनीति, साहित्य, कानून आदि-खडी होती है । अगर मनुप्यके सामाजिक संगठनको घरकी उपमा दे तो हमें कहना पडेगा कि आर्थिक उत्पादनका ढाँचा अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिए आवश्यक वस्तुओके पैदावारका तरीका, इस घरकी नीव है और मनुष्यके दूसरे कार्य-साहित्यिक, राजनीतिक, सास्कृतिक धार्मिक, आध्यात्मिक आदि-इसी घरका ऊपरी ढाँचा है। उत्पादन-सम्बन्ध समाजके इस बुनियादी आर्थिक ढाँचेका वर्णन करते हुए कार्लमार्क्सने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ "अर्थशास्त्रकी विवेचना मे एक स्थलपर लिखा है-"समाजमे व्याप्त उत्पादन- व्यवस्थामे लगे हुए मनुष्य निश्चित सम्बन्ध स्थापित करते है जो कि निर्धारित ( dete- rmined ) रहते है अर्थात् वे मनुष्योकी इच्छापर निर्भर नही होते-ऐसे उत्पादक सम्बन्ध जो कि उत्पादनकी भौतिक शक्तियोके विकासको निश्चित अवस्थाके अनुरूप होते है। इन्ही उत्पादन-सम्वन्धोके योगसे समाजकी आर्थिक प्रणाली वनती है जो कि वह वास्तविक आधार होती है जिसपर वैधानिक और राजनीतिक भित्तिका निर्माण होता है।" मासके इस उद्धरणमे तीन वाते ध्यान देनेकी है । एक वात यह कि समाजके 1. In the social production which human beings carry on, they enter into definite relations, which are determined, that is to say, independent of their will--production relations which corre- spond to a definite evolutionary phase of the material forces of production. The totality of these production relations forms the economic structure of society, the real basis upon which a legal and political superstructure develops"-Karl Marx in "A Critique of Political Economy.”
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