२७० राष्ट्रीयता और समाजवाद समाजके वहुतसे रस्मो-रिवाज अव भी कायम थे, पर वहुत-मी वातोमे तब्दीलियाँ भी हो गयी। कृपि और ऐसे प्रौजारोके साथ जिनपर व्यक्ति अकेले ही काम कर सकता था, समाजके अन्दर श्रमका विभाजन भी बढता गया । वस्तुग्रोका विनिमय ( exchange) भी प्रारम्भ हुआ और विनिमयके नये-नये साधनोकी खोज हुई । पुरोहितो और योद्धाओ आदिकी श्रेणियाँ बन गयी । अब आर्थिक सहयोगपर आधारभूत आदिम व्यवग्थाकी सामाजिक समानताका लोप होने लगता है । पहलेकी तरह जीवन-निर्वाहके साधनोको लोग अब सम्मिलित रूपसे इकट्ठा नहीं करते थे, फलस्वरूप प्रार्थिक उपजपर मबका समान स्वामित्व जाता रहा था । अव समाजमे गरीबो और अमीरोका भेद पैदा हो गया । जिन लोगोको समाजमे मुखियोका पद मिल गया था, जो लोग पुरोहित बन गये थे या जो लोग बलवान थे और लडाईमे गिरोहोके नेता बन सकते थे ऐसे लोग छल, वल, कौशलसे समाजके मालिक बन बैठे। स्वामी और दास उन दिनो विभिन्न जातियोंमें जमीन ग्रादिके लिए लड़ाइयां बहुत होती थी। इन लड़ाइयोमे जो लोग पकडे जाते थे वे विजेतायोके यहाँ दास बनकर काम करते थे । इस तरह समाजमे धीरे-धीरे दास और उनके मालिक-जैसे वर्ग पैदा हो गये। दासोकी संख्यामे वृद्धि होनेके और भी कई प्रकार थे, लेकिन मुख्य स्रोत जातियोका पारस्परिक युद्ध ही था। ससारके विभिन्न भागोमे जिन प्रारम्भिक सभ्यतासोका उदय हुआ उन सभीमे दासो और स्वामियोका वह वर्ग-भेद पाया जाता है। प्राचीन कालमे दासताकी प्रथाके प्रचलनसे ही स्वामी-वर्गके सुविधाप्राप्त सदस्योको यह अवसर मिल सका था कि वे अपनेको जीविका-निर्वाहके लिए आवश्यक दिन-रातके कठिन परिश्रमसे मुक्त करके ज्ञान-विज्ञान और कला-कौशलकी उन्नतिकी ओर लगा सके। अगर दासताकी प्रथा उस समय प्रचलित न होती जो ग्रीस, रोम तथा मिस्र और प्राचीन कालकी दूसरी सभ्यताएँ जिनपर आज हम गर्व करते है समृद्धिकी उस सतहपर न पहुँच सकती थी जिसपर उन्हे हम पाते है । प्राचीन भारतमे भी दासताकी प्रथा विद्यमान रहनेके प्रमाण मिलते है । सभ्यताके प्रारम्भिक विकासके लिए दासताकी प्रथा एक ऐतिहासिक आवश्यकता ( historic necessity ) थी। उस युगमे जब यन्त्रोका प्राजकी भॉति विकास नही हो पाया था, जब जीवन- निर्वाहके लिए आवश्यक कम-से-कम साधनोको जुटानेके लिए लोगोको दिन-रात जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी, उस समय कला-कौशल आदिकी वृद्धि उसी हालतमे हो सकती थी जव कि मनुष्योके लिए समूहको सांस्कृतिक विकासके लिए अवसर प्रदान किया जाता । यही कारण है कि हम देखते है कि अरस्तू जैसा विद्वान् भी विना दासोके समाजकी कल्पना नही कर सकता था।
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