जनताका आशादीप वुझ रहा है २५७ जीवनमें वडा अन्तर पड जायगा । तदनन्तर सवसे पहले हमको २-३ मौलिक कामोको लेना चाहिये और उनको पूरा करनेमे सारी शक्ति लगा देनी चाहिये । अन्न-वस्त्रकी समस्या सवसे प्रथम समस्या है । ज्यो ही यह समस्या सुलझने लगेगी त्यो ही वातावरण बदलने लगेगा। इस समय होता यह है कि गवर्नमेण्ट यह दिखानेका प्रयत्न करती है कि वह सब कुछ कर सकती है और कर रही है। इससे अपनी स्वल्प शक्तियोको हम विखेर देते है । अन्न-वस्त्रकी समस्याके वाद लोक-शिक्षा तथा उच्च-शिक्षाका नम्बर प्राता है । लोक-शिक्षासे मेरा आशय केवल अक्षर-ज्ञानसे नही है । निरक्षरोको भी नित्यके प्रश्नोके सम्बन्धमे शिक्षा होनी चाहिये । युवकोकी ओर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये । संक्षेपमे मेरा यह कहना है कि जबतक जनताको मनोवृत्ति तथा उसका भाव नही बदलता, हम कुछ नही कर सकते । हम सब जानते है कि आज निराशा छायी हुई है किन्तु उसको दूर करनेके लिए हमने कौन-सा कदम उठाया है ? सार्वजनिक प्रश्नोमे बढती हुई अरुचिको रोके विना कुछ नहीं होगा। हो सकता है कि गवर्नमेण्ट यह समझती हो कि उसका इसमे कोई नुकसान नहीं है, किन्तु यही अरुचि समय आनेपर कुरुचिमे परिवर्तित हो सकती है । अत सर्वप्रधान समस्या मनोवैज्ञानिक है। दूसरी वात जिसपर मैं जोर देता हूँ यह है कि लोकतन्त्रको रक्षा और उन्नतिके लिए एक स्वस्थ विरोधी दलका होना आवश्यक है । काग्रेसके बाहर सवलोग इस आवश्यकताको स्वीकार करते है । किन्तु काग्रेसके भीतर अव भी वहुतसे व्यक्ति इसको विविध युक्ति देकर अनावश्यक ठहराते है । कुछका कहना है कि भारतीय प्रकृतिके यह विरुद्ध होगा। राजेन्द्र वावूका कहना है कि यद्यपि विरोधकी आवश्यकता है तथापि यह विरोध काग्रेसके भीतर ही मौजूद है, अत. काग्रेसके वाहर विरोधी दलकी आवश्यकता नही है । यह तर्क हमारी अल्प वुद्धिमे ठीक नही है। काग्रेसके भीतर जो लोग है वह उसके वहुमतसे बंधे हुए है । वह व्यवस्थापिका सभामे बहुमतके निर्णयके विरुद्ध कुछ कह नही सकते । आज तो अवस्था यह है कि हमारे विधानको एक अल्प समुदाय ही बना रहा है । पहले कांग्रेस पार्टी की बैठक होती है, उसमे बहुमतसे निर्णय हो जाता है और यही निर्णय विधान- परिपद्ो स्वीकृत होता है । ऐसे भी अवसर पाते है जब कि यदि जाँच की जाय तव मालूम होता है कि काग्रेसका अल्पमत और स्वतन्त्रमत मिलकर काग्रेसके वहुमतके निर्णयके विपक्षमे है । किन्तु उसको अपनी इच्छाके अनुरूप मत देनेकी स्वतन्त्रता नही है । विधानके वनानेमे पार्टीका ह्विप जारी होना सर्वथा अनुचित है । जब मैं कहता हूँ कि विरोधी दलकी आवश्यकता स्वीकार की जाय तब मेरा मतलव यह नही है कि विरोधी दलोके लिए कुछ सीटे छोड़ दी जायें । मैं इतना ही चाहता हूँ कि इस सिद्धान्तको काग्रेस भी मुक्तकण्ठसे स्वीकार करे । मैं काग्रेससे कोई भिक्षा नही माँगता, क्योकि मैं जानता हूँ कि इस प्रकार सच्चे विरोधी दलकी सृष्टि नही हो सकती । काग्रेसने उदारतापूर्वक केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभामे कुछ गैरकांग्रेसियोको भी ले लिया है, किन्तु इससे कही विरोधी पक्ष थोड़े पनप पाये है। यह व्यक्तिविशेप है जिनके पीछे न कोई विशेष प्रोग्राम है और न कोई सगठन । १७
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