१४ राष्ट्रीयता और समाजवाद कहना था कि शासनको सुविधाको दृष्टिसे ही वंगालके दो टुकड़े किये जाते है, पर वङ्गालियोके विचारमे इसमे एक गहरा उद्देश्य छिपा हुया था। उनका खयाल था कि इस प्रकार सरकार वङ्गालियोकी शक्तिको क्षीण और कलकत्तेकी राजनीतिक प्रधानताको नष्ट करना चाहती है । पूर्वीय वगाल और ग्रासामका एक नया प्रान्त बनाकर बंगाली मुसलमानोको सरकार यह दिखलाना चाहती थी कि उन्हीके लाभके लिए वंग-विच्छेद किया जा रहा है। वंगालियोने इस निश्चयका घोर विरोध किया। पहले जगह-जगह सभा कर और ग्रावेदनपत्र भेजकर सरकारको जनताके रोप और असन्तोपसे परिचित कराया । वंगालियोने दृढ-सकल्प कर लिया कि हम बंगालका विच्छेद न होने देंगे। जव प्रार्थना सौर विनयसे काम न चला तो बंगाली नेताओंने स्वदेशी वस्तुअोके प्रचार पीर विलायती वस्तुअोके वहिष्कारका आन्दोलन प्रारम्भ किया। उन्होने यह समझा कि अंग्रेजोका मुख्य स्वार्थ व्यापार है और जवतक इस स्वार्थपर पावात न पहुँचाया जायगा तबतक सरकार जनताकी प्रार्थनाको न सुनेगी। वंगालमे एक अपूर्व-जागृतिके चिह्न दिखलायी पड़ने लगे । 'वन्देमातरम्' के पवित्र शब्द हर जगह सुनायी देने लगे । स्वदेशी पीर वायकाटकी धूम मच गयी । काग्रेसने वगालके नेताओके इस निर्णयको स्वीकार किया और अन्य प्रान्तोने भी वगालके साथ सहानुभूति दिखलायी । इसी समय कांग्रेसमें एक नये दलकी प्रतिष्ठा हुई जिसे लोग गरम दलके नामसे पुकारने लगे । मिस्रमें भी राष्ट्रवादियोमे 'इन्तिहा पसन्द' नामक एक दल था । अंग्रेज सम्पादकोने शायद मित्रकी देखा-देखी भारतीय दलोका ऐसा नामकरण किया था। इस समय काग्रेसमै नरम दलका आधिपत्य था। गरम दलके प्रमुख नेताअोमें लोकमान्य तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री अरविन्द घोप और लाला लाजपतराय थे। इस दलका प्रभाव बंगाल और महाराष्ट्रमें विणेप रूपसे था । धीरे-धीरे इस दलके अनुयायी बढने लगे । यह दल यात्म-निर्भरतामें विश्वास करता था। इस दलका कहना था कि अपने ही प्रयत्न और परिश्रमसे, न कि दूसरोपर आश्रित होकर, दासताके बन्धनसे कोई जाति मुक्त हो सकती है । राजनीतिके क्षेत्रमे जहाँ नरम दलका ध्येय औपनिवेशिक स्वराज्य था वहाँ गरम दलका ध्येय पूर्ण स्वतन्त्रता था । नरम दल वैध उगायोद्वारा ही अपने उद्देश्योकी पूर्ति चाहता था। इसके विद्ध गरम दलका कहना था कि जो देश परतन्त्र है उसके पास कोई शासन-विधान नही हैं जो उसको मान्य हो सके । उनका यह कहना था कि प्रत्येक देशको इस बातका पूरा अधिकार है कि वह सब प्रकारके उपायोद्वारा अपनी स्वतन्त्रता अर्जित करे । पर भारतकी वर्तमान स्थितिको देखते हुए हमारे लिए यह उपयुक्त न होगा कि हम सरकारके कानूनको तोड़ें, पर समय आनेपर यदि हम ऐसा करे और हमको सफलता मिले तो इतिहास हमारे कार्योकी प्रशंसा ही करेगा और इस कार्यके लिए हम दोपो न ठहराये जावेगे। वह राष्ट्रीय आन्दोलनको एक प्राध्यात्मिक आन्दोलन समझते थे। उनको अपने देशवासियोपर विश्वास था । वह समझते थे कि जातिकी सूवात्मा इस आन्दोलनद्वारा अपनेको परिपूर्ण करेगी। उनका विश्वास था कि दृढ संकल्प, यात्मत्याग और सङ्गठनद्वारा राष्ट्रका उत्थान अवश्यम्भावी है और किसी-न-किसी दिन इस अभागे देशमे भी स्वराज्यकी स्थापना होगी।
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