अनिवार्य गल्ला-वसूली योजना २५१ की । डा० लोहिया एक योग्य अर्थशास्त्री है और विलक्षण वाद-विवादी है । वह अपनी खबर खुद ही ले सकते है। मुझे यकीन है कि जब वे अपने दौरेसे वापस आवेगे तो अपने आलोचकोको तर्कपूर्ण ढंगसे जवाब देगे । जनताका तिरस्कार मेरा यह वक्तव्य देना केवल इसलिए जरूरी हो गया कि वाद-विवादमे मेरा नाम खींच लाया गया और जनताके दिमागपर ऐसा प्रभाव डालनेकी कोशिश की गयी मानो इस मामलेसे सोशलिस्ट पार्टीकी जो नीति है उससे मेरा मतभेद है,। यह सही है कि मैं कण्ट्रोल नीतिका वरावर समर्थक रहा हूँ और कण्ट्रोल-तोड नीतिका कट्टर विरोधी रहा हूँ जिसे प्रान्तीय सरकारोने चलाया और जिससे देशको बहुत नुकसान पहुंचा । यह भी सही है कि पिछले साल मै अनिवार्य गल्ला-वसूलीके पक्षमे था, लेकिन यह कहना ठोक नहीं कि मैं उस योजनाका पूरे तौरपर समर्थन करता था। मैं योजनाकी कुछ खास बुरी बातोके खिलाफ था और वरावर मैने इसकी ताईद की कि योजनामे जो खराबियाँ है उन्हे दूर किया जाय । उनदिनो गाँव-पंचायतोके अभावमे अनिवार्य वसूली ही एकमात्र व्यावहारिक उपाय थी। लेकिन अब पंचायते कायम हो गयी है । मैं इसका कोई कारण नही देखता कि जनताके इस संगठनको वसूलीका काम अपने ऊपर लेनेके लिए क्यो नही प्रेरित किया जाय। अगर हमलोग जनतामे प्रजातान्त्रिक भावना भरना चाहते है और अगर हम चाहते है कि वे अपने मामलेका प्रवन्ध और अपने आर्थिक जीवनको खुद व्यवस्थित करे तो हमपर ही यह निर्भर करता है कि हम उन्हे सरकारकी आर्थिक नीतियोको अमलमे लाने लायक वनावें । जन-साधारणमे हमारा विश्वास विलकुल नहीं है और हमारा उनपर कुछ भी भरोसा नही है । यही कारण है कि हम उनपर जिम्मेदारी डालनेकी बात नही सोचते । किसानोमे सगठनात्मक प्रतिभाकी कमी नही है, हमें उन्हें केवल जगाना है और किसानोको उनकी प्रतिभासे परिचित करा देना है। अनेक सदियोसे इस प्रतिभाको दवाया गया है और अब उसे रचनात्मक काममे लगानेके लिए स्वतन्त्र वातावरणकी जरूरत है। मेरा पक्का विश्वास है कि बिना जनताके सक्रिय और जागरूक समर्थनके कोई भी बड़ा मसला नही हल हो सकता। मुझे यह कहते हुए दुःख है कि सवालके इस पहलूको सही पार्श्वभूमिमे नही देखा गया । यह काम कठिन हो सकता है, लेकिन बिना जरूरी कोशिश किये किसीको हार कबूल नही करनी चाहिये । असलियत तो यह है कि सदियोसे पीड़ित और शोषित किसानोमे जो गतिहीनता और उदासीनता खास तौरपर पैदा हो गयी है उसे दूर करनेका सरकारने सुनहला मौका खो दिया । सरकार 'माँ-बाप' बनी लगता है कि सरकारके लिए जनताके सगठनका कोई उपयोग नही है । वह जनताके "माँ-बाप" के रूपमे काम करना चाहती है और यह महसूस करती प्रतीत नही होती कि
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