भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनका इतिहास १३ सत्यका उदय होने लगा कि जो अपने पैरोंपर नही खडा होता उसकी ईश्वर भी सहायता नहीं करता। लार्ड कर्जनके शासनकालमे कई ऐसी घटनाएँ हुई जिनसे इस विचारके लोगोकी संख्यामे तेजीके साथ वृद्धि होने लगी। कर्जनके समयमे भारत महामारी तथा' अकालसे कई वार पीडित हुया था । जनताको आर्थिक दशा भी शोचनीय थी । गल्लोके मँहगे हो जानेसे नौकरी पेशा लोग कष्टमे थे । जनताकी अशान्ति बढती जाती थी। सरकारको विवश होकर आर्थिक अवस्थाकी जाँच करानी पडी और अकालके समय कई प्रकारसे सहायता पहुँचानेके सम्बन्धमे नियम भी वनाने पडे । सन् १९०१ में कृषि- 'विभाग खोला गया और सन् १९०४ मे सहयोग समितिका कानून पास हुअा, पर इन छोटे- छोटे सुधारोसे कोई विशेप लाभ नही पहुँचा । यह सुधार मौलिक नही थे । काग्रेसका इस सम्बन्धमे कुछ और ही मन्तव्य था । काग्रेसका कहना था कि जबतक वन्दोवस्त हर जगह स्थायी नही हो जाता और इङ्गलैण्डको जो धन भारतसे जाता है उसका जाना बन्द नही होता तबतक भारतवर्पकी गरीवी दूर नही हो सकती। आज हम इस वातको अच्छी तरह समझ सकते है कि काग्रेसने उस समय भारतकी गरीबी दूर करनेके जो उपाय उचित समझे थे उनसे उद्देश्यकी सफलता नही हो सकती थी। इन उपायोको प्रयोगमे लानेसे अधिकतर जमीन्दार और मध्यम श्रेणीके लोगोको ही फायदा पहुँच सकता था। इससे उनकी मनोवृत्तिका पता अवश्य चलता है । सन् १९०१ से काग्रेस प्रौद्योगिक शिक्षापर 'भी जोर देने लगी। सन् १९०१ मे प्रथम वार काग्रेसके साथ-साथ एक प्रदर्शिनी भी हुई थी। लार्ड कर्जन उच्च कोटिकी शिक्षापर सरकारी नियन्त्रण चाहते थे। उस समय विश्वविद्यालयोके सिनेट और सिण्डिकेटमे भारतीयोका अच्छा प्रभाव था। वह इन संस्थानोका पुनः सगठन कर उनके प्रभावको घटाना चाहते थे । सन् १९०४मे 'यूनि- वर्सिटीज ऐक्ट' पासकर ऐसी व्यवस्था की गयी जिससे गरीबोके लिए ऊँची शिक्षाका प्राप्त करना कठिन हो गया। सिण्डिकेटके अधिकार नियमित कर दिये गये । शिक्षा- संस्थाप्रोके कडे निरीक्षणका प्रबन्ध किया गया । शिक्षा-विभागके डाइरेक्टर-जनरलकी 'नयी जगह कायम की गयी । भारतीयोकी यही धारणा हुई कि सरकार इन उपायोद्वारा विश्वविद्यालयोकी स्वतन्त्रता छीनना चाहती है और उनको सरकारी विभागमे परिणत करना चाहती है। इस कानूनसे अग्रेजी शिक्षितवर्गमे बड़ा असन्तोप फैला; क्योकि उन्होने इस विधानका यह अर्थ लगाया कि सरकार उनके बढते हुए प्रभावको रोकना चाहती है। लार्ड लिटनकी तरह लार्ड कर्जन भी अग्रेजी शिक्षित भारतीयोको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालयके पदवी-दान-समारम्भके अवसरपर लार्ड कर्जनने चान्सलरकी हैसियतसे जो वक्तृता दी थी उसमे उन्होने भारतीय सभ्यतामे छिद्रान्वेषण किया था। उनका कथन था कि भारतीयोको सत्यका वैसा आग्रह नही है जैसा यूरोपियनोको होता है । एक प्रकारसे पूर्वी सभ्यतापर ही उन्होने आक्रमण किया था । इससे हिन्दुस्तानियोको बहुत चोट लगी और बहुत मानसिक क्लेश पहुँचा । सन् १६०५ में बग-विच्छेद कर कर्जनने मानो बढ़ती हुई अशान्तिकी आगमें पूर्णाहुति दी। सरकारका
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