पटना अधिवेशन २२९ इसका सबसे वडा शत्रु है और यदि प्रजातन्त्रात्मक जीवन-प्रणालीको सफल बनाना है, तो उसका उन्मूलन अनिवार्यत होना चाहिये । साम्प्रदायिकताके परिणामस्वरूप हमारी राजनीतिक विचारधारा भी विकृत हो गयी है और अधिकाशमे हमारी परम्परागत चिन्तन प्रणालीने, जिसका हमारी वर्तमान समस्याप्रोके साथ कोई मेल नही है, अतिशय महत्त्व प्राप्त कर लिया है। यह स्पष्ट तौरपर समझ लेना है कि प्राचीन संस्कृतिके पुनर्जीवनका आन्दोलन आज दिन उपस्थित समस्याअोके समझने एवं उनका हल निकालनेमे हमे कुछ भी मदद नही पहुँचा सकता। हमलोग शीघ्रगामी सामाजिक परिवर्तनोके युगमें रह रहे है, जहाँ परिस्थितियाँ सदैव हमारे लिए नित्य नयी मॉग उपस्थित करती रहती हैं । हमलोग अपनेको प्रत्येक क्षण नवीन परिस्थितियोके अनुकूल बनानेके लिए विवश है । विज्ञान और शिल्पके इस युगमे, राजनीतिक और आर्थिक सगठन इतने जटिल होते जा रहे हैं कि लदे हुए जमानेके जीर्ण विचारोके बलपर उनका नियन्त्रण और संचालन हम नही कर सकते। यदि आज हमे जीवित रहना है तो हमे अनिवार्यत उन सामाजिक और राजनीतिक मूल्योको अपनाना ही होगा, जो वर्तमान समाजके लिए अपरिहार्य है। इनमेसे एक प्रजातन्त्रवाद भी है । प्रजातन्त्रवादका अर्थ सामान्य जनके प्रति आदर और उसकी राष्ट्रविधायक शक्तिमे विश्वास है । जनसाधारण कोई जडराशि नहीं है जिसकी उपेक्षा की जाय । उसमे प्रारम्भशक्ति भी होती है और वह सकटके समय क्रियाशीलताका जोरदार तकाजा पेश करता है। इसलिए जो प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तोके पोषक है, वे किसी हालतमे भी सामान्यजनकी उपेक्षा नही कर सकते, बल्कि ऐसे लोग जन-शिक्षाके द्वारा साधारणजनको इस योग्य बनायेगे कि वह अपनी इच्छाको व्यक्त कर सके और शासन- व्यवस्थाकी आलोचना करनेके अपने अधिकारोका भी उपयोग कर सके । दुर्भाग्यसे जो शासनारूढ है उनका मनोभाव अनुदार है । जनताद्वारा की गयी सरकारी नीतिकी आलोचनाके प्रति सरकार सहिष्णु नही है । अवश्य ही विरोधी विचारोको स्वतन्त्र रूपसे व्यक्त करने और सगठित करने के अधिकारपर सरकारी आक्रमण राजनीतिक प्रगतिको रोकता है, उसमे बोलने, लिखने और सघवद्ध होनेकी स्वतन्त्रता सुरक्षित होनी चाहिये और एक न एक वहाने स्वतन्त्र समाजके अधिकारोपर कुठाराघात करनेकी क्रिया बन्द होनी चाहिये । किन्तु वैधानिक स्वतन्त्रताके बावजूद हम देखते है कि जनतान्त्रिक भावोका गला घोटा जा रहा है और नागरिक स्वतन्त्रता कुचली जा रही है। इन घातक हमलोका तगड़ा विरोध करनेके लिए एक सुसगठित लोकमतका अभाव है । जनताकी उदासीनता अधिकारियोको और भी गैरजिम्मेदार बना देती है और यदि वह कोई आवाज अन्यायके विरुद्ध उठाती भी है तो वह अनसुनी कर दी जाती है । खतरेके समय यदि सरकार जनताकी सम्मति प्राप्त कर विशेषाधिकारोसे काम ले तो इसमे किसीको भी आपत्ति नही हो सकती, किन्तु साम्प्रदायिक शान्तिके नामपर, जबकि वस्तुत कोई आतंक या भयकी बात न हो, जनताके मौलिक अधिकारोपर एक लम्बे समयतक रोक लगाना अवश्य ही अवाछनीय है । यदि सरकार अपने वचनोके प्रति सच्ची है तो उसे अवश्य इसका सबूत देना चाहिये कि वह प्रजातान्त्रिक तरीकोपर चलती है और विधानका आदर
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