२२८ राष्ट्रीयता और समाजवाद तोड दिया है और जमीन खेत जोतनेवालोको बाँट दी है। उन्होने अपने सिद्धान्तोंमे भी चीनकी स्थितिके अनुकूल सुधार कर चीनी साम्यवादको नया स्वरूप दिया है जो कभी- कभी इसी कारण 'खेतिहर साम्यवाद' कहलाता है। मानोत्सेतुगका रूसका पुछल्ला होना भी निश्चित नही । भारतवर्पमे लोगोको अपनी इच्छानुसार चुनावकी अधिक स्वतन्त्रता है। सोशलिस्ट पार्टीको किसान और मजदूरोके रूपमे जनताका समर्थन प्राप्त है । उसने जनताको आकृष्ट किया है और कुछ ऐसे राष्ट्रीय व्यक्तियोको उपस्थित किया है जिनका जनता आदर करती है। यह पार्टी बढ रही है और यदि इसकी कमियाँ दूर कर दी जायें तो यह काग्रेससे राजनीतिक सत्ताके लिए प्रतिद्वन्द्विता कर सकती है। कुछ लोगोका यह भी कहना है कि चीनमे कम्युनिस्ट राज्यकी स्थापनाके बाद चीन भारत- वर्षमे अपनी सेना भारतीय कम्युनिस्टोकी सहायताके लिए भेजेगा। यह कोरी कल्पना है। नये कम्युनिस्ट राज्यको कितनी ही आन्तरिक समस्याओंका सामना करना पड़ेगा। वह अपनी ही समस्यालोमे उलझा रहेगा और शान्ति सुरक्षाकी स्थापना ही उसके लिए कठिन होगी। अपने पडोसियोसे मित्रता रखना ही उसके लिए हितकर होगा और यदि भारत चीनकी नयी सरकारको अपनी स्वीकृति देगा तो उसे भी सद्भावनाके रूपमें इसका उत्तर देना होगा और इस दशामे वह भारतके कम्युनिस्टोको अपनी हरकते सुधारनेकी सलाह भी दे सकता है। किसी भी दशामे उसके लिए भारतीय कम्युनिस्टोकी आकाक्षाओं- का समर्थन करना कुछ वर्षोतक सम्भव न होगा । यदि भारतकी परिस्थितिको वास्तवमे अच्छी तरह समझना है तो एक बातपर और विचार करना होगा । भारतके प्रधानमन्त्री अपनी नीतियोके निर्माणमे उतने कठोर और सकीर्ण नही है जैसे कि चीनमे च्यागकाईशेक रहे है। मुझे तो यहॉतक विश्वास है कि यदि वे सकटके समय यह समझेगे कि क्रान्तिकारी परिवर्तनके बिना स्थिति नही सँभाली जा सकती तो वैसा कदम अवश्य उठावेगे। दोनों नेताअोके दृष्टिकोण और सिद्धान्तमे महान् अन्तर है। इसलिए सव वातोपर विचार करनेके वाद मै इस परिणामपर पहुंचा हूँ कि भारतवर्षमे कम्युनिस्ट-नेतृत्वकी दिल्ली दूर है । इस देशमे राजनीतिक असन्तोप, राजनीतिक घृणा और उदासीनताके रूपमें तेजीसे परिवर्तित हो रहा है और यही कारण है कि यहाँ आलोचनात्मक चिन्तनका अत्यन्त अभाव है । यह बडी खतरनाक स्थिति है, किन्तु इसका उपाय हो सकता है यदि सरकार जन-जीवनमे एक नयी भावना उत्पन्न करे । उदासीनताकी इस भावनाको मिटाना है और जनताको राजनीतिक मामलोमे सक्रिय दिलचस्पी लेनेके लिए उत्साहित करना है। जनताके उदासीन मनोभाव मैत्रीभावमे परिवर्तित होने चाहिये और यह तभी सम्भव है, जब भोजन और वस्त्रके बुनियादी सवाल सन्तोपप्रद रूपसे हल हो जायँ और दमन- भयसे, मुक्त होकर सरकारकी आलोचना करनेकी वैधानिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो । यहाँपर देशकी प्रजातान्त्रिक स्वतन्त्रताकी चर्चा करना भी अप्रासगिक नहीं होगा। दुर्भाग्यसे, प्रजातन्त्रवादका मूल यहॉकी मिट्टीमे नही है। प्रजातन्त्र एक जीवन-विधि है और एक ऐसे देशमें जहाँ प्रजातन्त्रक अभ्यास और उसकी परम्पराका प्रायः अभाव है। इसका वातावरण सतत प्रयत्नोद्वारा ही तैयार किया जा सकता है। सम्प्रदायवाद
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