२२४ राष्ट्रीयता और समाजवाद भी हमने कुछ क्षेत्रोमे ३८, ४२ और ४३ प्रतिशत वोट पाये । दूसरे क्षेत्रोमे हमारे उम्मेदवारोको २४ से ३० प्रतिशततक वोट मिले । बहुत थोडे क्षेत्रोमे ही हमारी हार अधिक हुई और हमारी जमानतें जन्त हुई । अवश्य ही यह कोई बुरा परिणाम नहीं रहा और यदि मतदानकी वही प्रणाली यहाँ भी होती जो बम्बई नगरमे है, तो अवश्य ही हमने उतनी ही प्रतिशत सीटे जीती होती जितनी कि बम्बईमे हमे मिली । कोई भी वस्तु सफलता- की भांति सफल, नही होती हमारा विश्लेपण कितना ही गम्भीर क्यो न हो-इसमे सन्देह नही कि चुनावमे हमारी पराजयका उस समय जनताके मनपर वडा घातक प्रभाव पडा । इस सक्षिप्त सिंहावलोकनमे इस वर्षकी मुख्य घटनाका उल्लेख आवश्यक है । इसकी बहुत चर्चा हुई है और इसकी प्रतिक्रिया सम्पूर्ण देशपर हुई। फिर भी हमारी हार पार्टी कार्यकर्तायोको हतोत्साह न कर पायी । उलटे और भी सक्रिय कार्यकी प्रेरणा इसने प्रदान की और हमे अपने वलावलका सही अन्दाजा हुअा। अपनी त्रुटियोंके विषयमे हम सचेत हो गये और हमने समझा कि हमारा प्रभाव और सम्मान कांग्रेसके साथ रहनेमानसे अत्यधिक वढा हुअा था। इस सवककी भी हमें अत्यन्त आवश्यकता थी और जहाँ हमारी हानि केवल क्षणिक रही, वहाँ एक दृष्टिसे हमारे पृथक् होनेके उपरान्त कांग्रेसकी स्थायी क्षति हुई । उसने सदाके लिए अपना राष्ट्रीय स्वरूप खो दिया । आज उसकी हैसियत एक राजनीतिक पार्टीकी ही रह गयी है और अब वह भारतीय जनताका एकमात्र प्रतिनिधि होनेका दावा नही कर सकती। सिद्धान्तोका संघर्ष बहुत अागे वढ गया है । मजदूर-आन्दोलन अपनी एकता खो चुका है । काग्रेस, जिसके लिए पहले मजदूर और किसान-संगठनोका कोई उपयोग न था, आज सरकारके हितमे इन संगठनोके नियन्त्रणकी आवश्यकता समझती है । इस प्रकार मजदूर-वर्ग तीन सगठनोमे विभक्त हो चुका है और अब मजदूर-सगठनोको सरकार और राजनीतिक पार्टियोसे स्वतन्त्र नही रखा जा सकता। यही दृश्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रमे भी प्रकट हो रहा है । एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जो सरकार और राजनीतिक पार्टियो तथा सिद्धान्तोसे मुक्त हो, राजनीतिक वास्तविकतामोसे मेल नही खाता है और इसीलिए यह विचार कार्यरूपमे नही लाया जा सकता। कांग्रेसके सत्तारूढ होनेके साथ कुछ नवीन मनगढन्त सिद्धान्तोको प्रचारित किया जा रहा है । वहुधा श्रमिकोके हड़तालके अधिकारको अस्वीकार किया जाता है और कुछ हड़तालोको गैर-कानूनी करार देनेके लिए कानून बनाये जा रहे है। सरकार और जनताको एक बता दिया जाता है और कहा जाता है कि सरकारद्वारा नियन्त्रित तथा निर्देशित उद्योगो मे हडताल न होनी चाहिये । भारतीय प्रकृतिके नामपर विरोधपक्ष तथा वैधानिक स्वतन्त्रताकी आवश्यकतातकको अस्वीकार किया जाता है । काग्रेस सरकारकी पिछलग्गू हो गयी है और इसलिए सामाजिक सघर्पोमे अग्रसर होनेकी अपनी स्वतन्त्रता खो चुकी है । आज इसका प्रधान कार्य सरकारके स्वार्थके लिए जन-आन्दोलन रोकना हो गया है । भारतीय आन्दोलन ऊँचे स्तरपर उठना चाहता है, वह सामाजिक और आर्थिक जीवनके नये ढाँचेको पानेके लिए लड़ रहा है । काग्रेस उग्र नारोका प्रयोग करती है और कहती है कि
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