सन् ४२ की क्रान्तिका उद्देश्य अभी पूरा नही हुआ २१९ आशा बंधी थी कि भारत एशियाका नेतृत्व करेगा । प्राचीन कालमे भी भारतने एशिया- का नेतृत्व किया था। यह नेतृत्व हमारी सस्कृति और नैतिकताके कारण ही सम्भव हो सका था। प्राचीन भारतने दुनियामे प्रभुत्व स्थापित करनेकी कामना नहीं की। उसने सदैव एक नया सन्देश दिया। एशियाके गुलाम देशोसे सहानुभूति रखनेके कारण भारत आज भी एशियाका गुरु वन सकता था। एशियाके देश यह चाहते भी थे। किन्तु आज स्थिति बदल गयी है । एशियाई देश देखते है कि आप अपने घरकी समस्याएँ ही हल नहीं कर सकते । फिर एशियाके नेतृत्वका सवाल कहाँ ? हमारे लिए यह अत्यधिक लज्जाकी वात थी कि अपने उच्च आदर्शोको भूलकर हम वर्वरता और साम्प्रदायिकताका नग्न नृत्य करे। आज जनतन्त्रका मूल्य नही समझा जा रहा है। विरोधी दलका मुँह बन्द कर साम्प्रदायिकताका राज लादा जा रहा है । यह मार्ग पतनका है। हमे सन् ४२ का मार्ग नही भूलना है । आज कांग्रेसके नेताअोने उस मार्गको भुला दिया है । इन नेताअोका विचार है कि हमारी लडाई समाप्त हो गयी, यह समय भोगका है, सरकारी पदोपर रहकर ही जनताकी सेवा सम्भव है । वर्तमान अवस्थामे जनताकी शक्ति कैद है, उसको वाहर निकलनेका मौका नही मिलता । हमारी सरकारे जनताके सहयोगकी उपेक्षा कर फौज, पुलिस और सिविल सर्विसके बूतेपर शासन कर रही है । देशभरकी जनतामे आतक फैला हुआ है । गाधीजीने जनताको निर्भय बनना सिखाया था किन्तु काग्रेसी राजमे ही जनता त्रस्त है । गत चुनावोके अवसरपर एक वोटरने मुझसे कहा था कि आज न वोट देनेकी आजादी है, न मरनेकी । ऐसी हालतमे जनतन्त्र चल नही सकता । जो जनता पहले काग्रेसके प्रति श्रद्धा रखती थी वही आज उससे डरी काग्रेसी सरकार विरोधी दलकी आवश्यकता नही समझती। विरोधी दलको विदेशी चीज और भारतीय सस्कृतिके विरुद्ध बताया जाता है । ये ही सरकारें आँख मूंदकर विदेशी विधानोकी नकल कर रही है। क्या यहाँ भारतीय संस्कृतिसे विरोध नही होता ? जनतन्त्रकी सफलताके लिए अग्रेज विरोधी दलको आवश्यक समझते है । आज समाजवादको भी विदेशी वताकर उसका विरोध किया जाता है। ऐसे लोगोसे मैं पूछता हूँ कि पूंजीवाद भी तो वाहरसे आया है । वह भी तो विदेशी है । फिर उसका विरोध क्यो नही ? अगर आपको विदेशी चीजोसे ही वैर है तो पूँजीवादका नाश क्यों नही करते ? पूँजीवादके अभावमे समाजवादको आवश्यकता ही नही रहती । यदि पूंजीवाद- को समाप्त नही किया जाता तो समाजवादी आन्दोलनको भी नहीं रोका जा सकता। संस्कृतिका प्रश्न भारतीय सस्कृतिको समझना अत्यधिक कठिन है । विना समझे उसकी असामयिक दुहाई देना व्यर्थ है । जीवन और सस्कृति परिवर्तनशील है । किसी भी देशके लिए ताजे पानीकी भॉति नवीन संस्कृतिकी आवश्यकता होती है। अन्यथा जीवन-प्रवाह
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