पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२०२

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समाजवादी क्रान्तिकी रूपरेखा १८६ वादियोका काम है । इसका यह अर्थ नहीं है कि हम इस कार्यको हेय समझते है । हम इसके महत्त्वको स्वीकार करते है । यह भी ठीक है कि क्रान्ति नित्य नही हुआ करती है तथा सुधारवादी समझा जानेवाला काम ही क्रान्तिका आधार बनता है। किन्तु अब हम एक ऐसे युगमे रह रहे है, जब पुरानी रूढियाँ टूट रही है, जब वर्तमान समाजके आधारमें ही ग्रामूल परिवर्तन करनेकी आवश्यकता है, जब राजनीतिक तथा सामाजिक क्रान्तिके विना मानव-समाजका कल्याण नहीं हो सकता है, तव सुधारवादको अपना एकमात्र उद्देश्य बनाना हमारी भूल होगी । आज सुधारके कार्य क्रान्तिके सहायक होकर ही समाजके उपकारक हो सकते है। इसी प्रकार विद्यार्थियोको कार्यकुशल वनाना, उनमे विविध क्षेत्रोमे लोकनायक होनेकी क्षमता उत्पन्न करना तथा वर्तमान समस्यायोको समझने और समाधान करनेकी योग्यता उत्पन्न करना हमारा प्रधान कार्य होना चाहिये । इसी प्रकार यदि काग्रेसको क्रान्तिका उपकरण बनना है तो उसको भी अपनी परिपाटी बदलनी होगी। वास्तविकता यह है कि उसके कामका ढग पुराना पड़ गया है और उससे नये युगकी आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं होती। सच तो यह है कि इन सब वर्ग-सस्थानोपर काग्रेसका साया पड़ा है और जबतक काग्रेस नही बदलती, इनके बदलनेमे भी कठिनाई है। किन्तु वे लोग जो संग्रामकी अनिवार्यताके कायल है उनका उत्तरदायित्व इस दिशामे औरोसे कही अधिक है । उनको नया मार्ग दिखाना चाहिये और जो लोग आज उनके कार्यक्रमको सन्देह और अविश्वासको दृष्टिसे देखते है, उनके सामने कार्यसे, न कि केवल वातोसे अपने कार्यक्रमकी उत्कृष्टता प्रमाणित करनी चाहिये । अतः समाजवादियोका कर्तव्य है कि वह नये कदमको उठावे । जबतक हम अपने दिल और दिमागको न बदलेगे, तबतक कार्य-सिद्धि नहीं होगी। सफलताकी यही कुञ्जी है । इसके विना जो भी कार्य किया जायगा, वह क्रान्तिको निकट लानमे सहायक न होगा। एक कारण है जिससे इस नये ढंगका अख्तियार करना जरूरी है। आज हम देखते है कि देशमे नयी-नयी अनेक पार्टियाँ बन रही है । आजके युगमे जव समाजके मौलिक अाधारके विपयमे ही तीन मतभेद है और सर्व साधारणका यह विश्वास हो रहा है कि आजादी बहुत निकट आ गयी है, पार्टियोकी सख्यामे वृद्धि होना स्वाभाविक है। यह युग समुदायका है, न कि व्यक्तिका । जव आर्थिक क्षेत्रमे समूहकी प्रधानता हो रही है तथा सामुदायिक अर्थ-नीतिका महत्त्व रोज वढता जाता है; तब यह तत्त्व समाजके सब अगोमे व्याप्त होता जाता है । व्यक्ति अाज समूहसे अतिरिक्त अपना पृथक महत्त्व नही रखता । समूहके उद्देश्यको चरितार्थ करके ही वह कृतकृत्य होता है । वह मशीनके एक पुर्जेके समान हो रहा है । पुन. राज्यशक्ति सन्निकट है, इस विश्वासके कारण विविध समुदायोका उदय होता है जो अपने-अपने लिए उस शक्तिको प्राप्त करना चाहते है । इनमेसे बहुतेरे युग-धर्मका प्रतिनिधि वननेका दावा करते है और उनकी वाणी भी युगके अनुकूल होती है । यह युग समाजवादका युग है, अत: इनमेसे वहुतोको अपनेको समाज- वादका समर्थक बताना पडता है । अव इनमे यदि विवेक करना है तो वाणी मात्रसे विवेक न होगा। इनकी समस्त चेष्टा, इनका कार्यकलाप देखकर ही इनमे विवेक किया जा