१७८ राष्ट्रीयता और समाजवाद . बढाते है । यदि वह किसी समय काफी सवल हो जाते है तो उस संस्थापर अपना आधिपत्य जमानेकी कोशिश करते है । जब कभी उनकी समझमें क्रान्तिकारी परिस्थिति उपस्थित होती है तभी वह सयुक्त मोर्चेकी नीतिका परित्याग करते है और उन संस्थानोंपर पूरा कव्जा करना चाहते है जिनमे उनका या तो वहुमत है या परिस्थिति कव्जा पानेके लिए अनुकूल है। इसका कारण यह है कि उनकी ऐसी मान्यता है कि वही सच्चे क्रान्तिकारी है और दूसरे लोग सुधारवादी है। वह अपनेको क्रान्तिका ठेकेदार समझते हैं और उनके कार्यमे दूसरे बाधा न डाल सके इसलिए किसी दूसरी सस्थाके अनुशासनमे नही रहना चाहते और वर्ग-संगठनोपर अपना अक्षुण्ण प्रभाव जमाना चाहते है । यही कारण है कि वह कम्युनिस्ट, जो सन् १९३७ से संयुक्त मोर्चेका नारा वुलन्द करने लगे थे और काग्रेसकी एकताके लिए लम्बी वाते किया करते थे, युद्धके उपस्थित होते ही काग्रेसके विरुद्ध आवाज उठाने लगे, उन सब दलोको सुधारवादी कहने लगे जिनके साथ वह अवतक सहयोग करते आये थे और जिनको कलतक क्रान्तिकारी स्वीकार करते थे । मजदूर और किसान सभायोमे उनको सामान्य स्थान प्राप्त था। इसलिए इन संस्थानोमें उनकी दाल नही गल पाती थी। किन्तु विद्यार्थी-सगठनपर अच्छा प्रभाव होनेके कारण उस सगठनमे झगड़ा खडा करना उनके लिए आसान था। नागपुर अधिवेशनके अवसरपर उन्होने दूसरे दलोको निकालनेका प्रयत्न किया और स्वागत समितिकी सहायतासे इस कामको पूरा कर सके । कुछ दिनो बाद जव सत्याग्रह आन्दोलनमे कई प्रमुख किसान नेता गिरफ्तार हो गये तव उन्हें किसान-सभामे वेजाव्ता कार्यवाही करनेका मौका मिला। यहाँ इस वातकी जरूरत नही है कि मै कम्युनिस्टोकी उन अनियमित कार्यवाहियोका उल्लेख करूँ जिनके द्वारा उन्होने किसान-सभाके जिम्मेदार लोगोको उनसे अलग होनेके लिए विवश किया। इसमे स्वामी सहजानन्द सरस्वतीका भी पूरा हाथ था । कम्युनिस्टोंकी साम्प्रदायिकता कम्युनिस्टोके इतिहासमे यह पहला मौका नही है जव कि उन्होने वर्ग-संगठनोको अपनी कार्यवाहियोसे कमजोर कर दिया है। भारत क्या हर जगह उसके पर्याप्त उदाहरण हमको मिलते है और क्यो न मिले जब कि उनकी मनोवृत्ति इतनी सकुचित, अनुदार और मिथ्या धारणाअोपर स्थापित है । यह अपनी भूलोको स्वीकार भी करते है, उनको सुधारते भी है । किन्तु फिर भी उन्ही भूलोको दुहराते है । हर जगह इन्होने क्रान्तिको बरवाद किया है ! इसी दूपित मनोवृत्तिकी वदौलत आन्दोलन और क्रान्तिसे भी अपने दलको ये अधिक महत्त्व देते है । इनके कठमुल्लापनका क्या कहना है । यह शन्दप्रमाणके माननेवाले है । जीवनका अनुभव इनके लिए इतना महत्त्व नहीं रखता जितना कि शास्त्रका एक वाक्य । इनका आचरण पग-पगपर मार्क्सकी शिक्षाके प्रतिकूल होता है । इन्होने कम्युनिज्मको एक धार्मिक सम्प्रदायका स्वरूप दे दिया है। इनके भी महन्त है । मास्को इनका मक्का है । तृतीय इण्टरनेशनलके आदेश इनके लिए वेदवाक्य है, चाहे उनकी उपयुक्तता समझमे आवे या न आवे ?
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