भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनका इतिहास मुसलमानी कानूनके अनुसार अपना निर्णय देते थे ।, दीवानीकी , अदालतोमें धर्म-शास्त्र और शरहके अनुसार पण्डितो और मौलवियोकी सलाहसे अनेज कलेक्टर मुकदमोका फैसला करते थे। जव ईस्टइण्डिया कम्पनीने शिक्षापर कुछ व्यय करनेका निश्चय किया, तो उनका पहला निर्णय अरवी, फारसी और संस्कृत-शिक्षाके पक्षमे ही हुआ। वनारसमे संस्कृत कालेज और कलकत्तेमे कलकत्ता मदरसाकी स्थापना की गयी । पण्डितो और मौलवियोको पुरस्कार देकर प्राचीन पुस्तकोके मुद्रित कराने और नवीन पुस्तकोके लिखानेका आयोजन किया गया। उस समय ईसाइयोको कम्पनीके राजमे अपने धर्मके प्रचार करनेकी स्वतन्त्रता नही प्राप्त थी। विना कम्पनीसे लाइसेन्स प्राप्त किये कोई अंग्रेज न भारतवर्षमे आकर वस सकता था और न जायदाद खरीद सकता था। कम्पनीके अफसरोका कहना था कि यदि यहाँ अंग्रेजोको वसनेकी आम इजाजत दे दी जायगी तो उससे विद्रोहकी आशङ्का है, क्योकि विदेशियोके भारतीय धर्म और रस्म-रिवाजसे भलीभांति परिचित न होनेके कारण इस वातका वहुत भय है कि वे भारतीयोके भावोका उचित आदर न करेगे। देशकी पुरानी प्रथाके अनुसार कम्पनी अपने राज्यके हिन्दू और मुसलमान धर्म-स्थानोका प्रवन्ध और निरीक्षण करती थी। मन्दिर, मस्जिद, इमामवाड़े और खानकाहके आय-व्ययका हिसाव रखना, इमारतोकी मरम्मत कराना और पूजाका प्रवन्ध, यह सब कम्पनीके जिम्मे था । अठारहवी शताब्दीके अन्तसे ही इङ्गलैण्डके पादरियोने इस व्यवस्थाका विरोध करना शुरू किया। उनका कहना था कि ईसाई होनेके नाते कम्पनी विधर्मियोके धर्म-स्थानोका प्रबन्ध अपने हाथमे नही ले सकती। वे इस वातकी भी कोशिश कर रहे थे कि ईसाईधर्मके प्रचारमे कम्पनीकी ओरसे कोई वाधा नही होनी चाहिये । उस समय देशी ईसाइयोकी अवस्था वहुत शोचनीय थी। यदि कोई हिन्दू या मुसलमान ईसाई हो जाता था तो उसका अपनी जायदाद और वीवी एवम् बच्चोपर कोई हक नही रह जाता था। मद्रासके अहातेमे देणी ईसाइयोको वडी-बड़ी नौकरियाँ नही मिल सकती थी। इनको भी हिन्दुअोके धार्मिक-कृत्योके लिए टैक्स देना पड़ता था। जगन्नाथजीका रथ खीचनेके लिए रथ-यात्राके अवसरपर जो लोग वेगारमे पकड़े जाते थे उनमे कभी-कभी ईसाई भी होते थे। यदि वे इस वेगारसे इन्कार करते थे तो उनको वेत लगाये जाते थे। इङ्गलैण्डके पादरियोका कहना था कि ईसाइयोको उनके धार्मिक विश्वासके प्रतिकूल किसी कामके करनेके लिए विवश नही करना चाहिये और यदि उनके साथ कोई रियायत नही की जा सकती तो कमसे कम उनके साथ वही व्यवहार होना चाहिये जो अन्य धर्मावलम्बियोके साथ होता है । धीरे-धीरे इस दलका प्रभाव ,वढने लगा और अन्तमे ईसाई पादरियोकी माँगोको वहुत कुछ-अशमे पूरा करना पड़ा। कानून बनाकर यह नियम कर दिया गया कि जो कोई धर्म-परिवर्तन करेगा उसको उसके फलस्वरूप अपनी जायदादसे हाथ नही धोना पड़ेगा। ईसाइयोको धर्म-प्रचारकी भी स्वतन्त्रता मिल गयी । अव राज-दरवारकी भापा अग्रेजी हो गयी और अग्रेजी शिक्षाको प्रोत्साहन देनेका निश्चय हुआ । धर्म-शास्त्र और शरहका अग्रेजीमे अनुवाद किया गया और एक 'ला कमीशन' नियुक्त कर एक नया दण्ड-विधान और अन्य नये कानून तैयार
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