पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१७५

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१६२ राष्ट्रीयता और समाजवाद "यदि संस्थानोके रूपमे वह कांग्रेसकी स्थानीय सस्थाअोसे सहयोग करे । इस सहयोगका आधार सामूहिक सदस्यता होना चाहिये । काग्रेसके साथ सम्वन्ध होना जरूरी है, क्योंकि साम्राज्यविरोधी संघर्ष इससे तेजीके साथ वढाया जा सकता है, पर इस सम्बन्धका यह अर्थ न होगा कि वे अपनी स्वतन्त्रता और अपना स्वरूप ही खो बैठे । काग्रेससे सम्बन्ध स्थापित करनेके बाद यह संस्थाएँ सब क्रान्तिकारी अंशोको एकत्र कर गांधीजीकी शैलीके अनुसार नही, किन्तु सही ढंगसे सघर्प करेगी । जनताको एक स्वतन्त्र राजनीतिक शक्तिके बनानेमे सहायक होना आवश्यक है।" इस उद्धरणसे यह बात साफ हो जाती है कि कम्युनिस्ट सन् १९३६ में यह चाहते थे कि क्रान्तिकारी सस्थाएँ काग्रेस कमेटियोसे सम्बन्ध स्थापित कर उनके सदस्योको कम्युनिस्ट ढंगसे सघर्ष करनेके लिए तैयार करे। इसमे प्रधानता काग्रेसकी न थी, किन्तु अन्य संस्थानोकी थी। इसको बतानेकी जरूरत नहीं है कि इस तरह कांग्रसके दायरेके लोग इस प्रकारके सयुक्त मोर्चेमे शामिल नहीं किये जा सकते थे। वास्तवमे वह काग्रेसका सम्बन्ध इसलिए चाहते थे कि काग्रेस कानूनी कामके लिए मौका देती थी और कांग्रेस एक राजनीतिक क्षेत्र भी था जहाँ शोषित वर्गोके विविध समूह वनते थे । वह चाहते थे कि असली क्रान्तिकारी सस्थाएँ इस क्षेत्रका अपने लिए उपयोग करे । उनकी रायमे आर्थिक और राजनीतिक सघर्पोके लिए जनताको तैयार करने और उसको काग्रेसके प्रभावसे अलग करनेका सबसे प्रभावशाली तरीका सयुक्त मोर्चेकी नीति ही थी।' काग्रेसके वारेमे सामान्य रूपसे उनकी राय इतनी खराव थी कि वह अपने भोलेपनमे यह समझते थे कि 'जो लोग वरसो गाधीजीकी दुममे बँधे रहे वह कैसे मजदूर और किसानसे प्रेम कर सकते है और हिन्दुस्तानमे समाजवादी राज्य स्थापित करनेकी बात सोच सकते है ।" इसका तो यह अर्थ हुअा कि एक बार जो गाधीवादी हो गया वह कभी छुटकारा नही पा सकता । उनका शायद यह ख्याल है कि जिस-पर कभी कांग्रेसका साया नही पड़ा है वह ज्यादा आसानीसे क्रान्तिकारी बनाया जा सकता है । यह है क्रान्तिकारी मनोवृत्ति और राजनीतिज्ञता ! किसान सभा और कम्युनिस्ट सन् १९३६ मे अखिल भारतीय किसान सभाका सगठन हुआ था। उसका कार्यक्रम क्या हो और उसकी सत्ता किस प्रकारकी हो इसपर एक 'थोसिस' मे कम्युनिस्टोने विचार किया था। उसका कहना था कि “ये किसान सभाएँ प्रायः काग्रेसजनो और काग्रेस समाजवादियो द्वारा संगठित होगी और इसलिए इनपर काग्रेसका कुछ प्रभाव पड़ना अनिवार्य है । पर हमको दृढताके साथ अनुरोध करना चाहिये कि आरम्भसे ही किसानसभाकी स्वतन्त्र सत्ता हो और वह काग्रेसका पुछल्ला न बने । किसानोंपर जो काग्रेसका प्रभाव है उसको घटानेके लिए हमे किस नीतिका सहारा लेना चाहिये ? हमारे कुछ साथी गाँवमें काग्रेसके प्रभावको सही तौरसे नही ऑकते । इसमे कोई सन्देह नही कि किसानोमे कांग्रेसके प्रति बहुत असन्तोष है, विशेषकर गाँवके