२ राष्ट्रीयता और समाजवाद हाथकी कठपुतली थे। उनपर यह वात अच्छी तरह जाहिर हो गयी थी कि अंग्रेजोंका विरोध करनेसे वे पदच्युत कर दिये जायेंगे । यह विदेशी व्यापारी भारतसे मसाला, मोती, जवाहिरात, हाथीदाँतकी बनी चीजें, ढाकेकी मलमल और आवेरवा, मुर्शिदावादका रेशम, लखनऊकी छोट, अहमदाबादके दुपट्टे, नील आदि पदार्थ ले जाया करते थे और वहाँसे शीशेका सामान, मखमल, साटन और लोहेके औजार भारतवर्पमे वेचनेके लिए लाते थे। हमे इस ऐतिहासिक तथ्यको नही भूलना चाहिये कि भारतमे ब्रिटिशसत्ताका प्रारम्भ एक व्यापारिक कम्पनीकी स्थापनासे हुआ । अंग्रेजोकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा तथा चेष्टा भी इसी व्यापारकी रक्षा और वृद्धिके लिए हुई थी। अाज भारतवर्पमे अंग्रेजोकी बहुत बड़ी पूंजी लगी हुई है। पिछले पचास-साठ वर्पोमे इस पूंजीमे वहुत तेजीके साथ वृद्धि हुई है । ६३४ विदेशी कम्पनियाँ भारतमे इस समय कारोबार कर रही है । इनकी वसूल हुई पूंजी लगभग साढे सात खर्व रुपया है और ५१६४ कम्पनियाँ ऐसी है जिनकी रजिस्ट्री भारतमे हुई है और जिनकी पूंजी ३ खर्व रुपया है । इनमेसे अधिकतर अग्रेजी कम्पनियाँ है । इङ्गलैण्डसे जो माल विदेशोको जाता है उसका दशमाश प्रतिवर्प भारतवर्प आता है । वस्त्र और लोहेके व्यवसाय ही इङ्गलैण्डके प्रधान व्यवसाय है और ब्रिटिश राजनीतिमें इनका प्रभाव सबसे अधिक है । भारतपर इङ्गलैण्डका अधिकार बनाये रखनेमे इन व्यवसायोका सबसे वडा स्वार्थ है; क्योकि जो माल ये बाहर रवाना करते है उसके लगभग पञ्चमाशकी खपत भारतवर्षमे होती है । भारतका जो माल विलायत जाता है उसकी कीमत भी कुछ कम नहीं है । इङ्गलैण्ड प्रतिवर्ष चाय, जूट, रुई, तेलहन, ऊन और चमडा भारतसे खरीदता है । यदि केवल चायका विचार किया जाय तो ३६ करोड़ रुपया होगा। इन वातोपर विचार करनेसे यह स्पष्ट है कि ज्यो-ज्यो इङ्गलैण्डका भारतमे आर्थिक लाभ वढ़ता जाता है, त्यो त्यो उसका राजनीतिक स्वार्थ भी बढ़ता जाता है । उन्नीसवी शताब्दीके पहले इङ्गलैण्डका भारतपर बहुत कम अधिकार था और पश्चिमी सभ्यता तथा सस्थानोका प्रभाव यहाँ नहीके बराबर था । सन १७५० से पूर्व इङ्गलैण्डमें श्रौद्योगिक क्रान्ति भी नही प्रारम्भ हुई थी। उसके पहले भारतवर्षकी तरह इङ्गलैण्ड भी एक कृपि-प्रधान देश था। उस समय इङ्गलैण्डको आजकी तरह अपने मालके लिए विदेशोमे बाजारकी खोज नही करनी पड़ती थी। उस समय गमनागमनकी सुविधाएँ न होनेके कारण सिर्फ हल्की-हल्की चीजे ही वाहर भेजी जा सकती थी। भारतवर्पसे जो व्यापार उस समय विदेशोसे होता था, उससे भारतको कोई आर्थिक क्षति भी नहीं थी। सन् १७६५मे जव ईस्ट इण्डिया कम्पनीको मुगल बादशाह शाहमालमसे वंगाल, विहार और उडीसाकी दीवानी प्राप्त हुई, तवसे वह इन प्रान्तोमे जमीनका वन्दोवस्त और मालगुजारी वसूल करने लगी। इस प्रकार सबसे पहले अग्रेजोने यहाँकी मालगुजारीकी प्रथामे हेर-फेर किया। इसको छोड़कर किसी पुरानी संस्थामें किसी प्रकारका भी परिवर्तन नही किया गया। उस समय पत्रव्यवहारकी भापा फारसी थी। कम्पनीके नौकर देशी ‘राजाप्रोसे फारसीमे ही पत्न-व्यवहार करते थे। फौजदारी अदालतोमे काजी और मौलवी
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