लखनऊमे 8 अगस्तको भाषण-कामनवेल्थविरोधी १४७ मण्डलसे हमे सैनिक सहायता प्राप्त होगी, किन्तु हमारे शत्रु कौन है जिनसे राष्ट्रमण्डल हमारी रक्षा करेगा । उसके सभी प्रमुख सदस्य-राष्ट्र प्रांग्ल-अमेरिकन गुटमें शामिल है और पाश्चात्य यूरोपीय संघ तथा अटलाटिक पैक्टके समर्थक है । ऐसी स्थितिमे राष्ट्र- मण्डल हिन्दुस्तानकी तटस्थता-नीतिमे कदापि सहायक न होगा। पण्डित नेहरूने एक नये एशियाके निर्माणका उल्लेख किया है और इसके नामपर हमसे राष्ट्रमण्डलका समर्थन करनेके लिए कहा है। किन्तु उन्होने यह बतानेका कष्ट नही किया कि इन दोनोका एक दूसरेसे क्या सम्बन्ध है ? मेरे विचारसे तो राष्ट्रमण्डलमे शामिल होनेसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्रोके साथ हमारे सम्बन्धपर बुरा प्रभाव पडेगा । ब्रिटेन मलायामे साम्राज्यवादी नीतिका अनुसरण कर रहा है और उसका डच और फ्रासीसी साम्राज्यवादके साथ गठबन्धन भी है । दक्षिण-पूर्वी एशियामे जिन शक्तियोका उदय हो रहा है और जो शीघ्र ही सत्तारूढ़ होगी, वे राष्ट्रमण्डलके साथ किसी प्रकारके सम्बन्धकी विरोधी है । हमलोगोने अपनेको पहले ही एक गुटमे शामिल कर लिया है और अगर दूसरे उसके विरुद्ध जाते है तो हम उनपर दोपारोपण नही कर सकते है । प्रधान मन्त्रीजीका विश्वास है कि हिन्दुस्तान राष्ट्रमण्डलमे रहकर विश्व-शान्तिमें अधिक प्रभावकर रूपसे योगदान दे सकता है । किन्तु इस बातकी बिलकुल आशा नहीं है कि हिन्दुस्तान ब्रिटेन और राष्ट्रमण्डलके दूसरे राष्ट्रोकी नीतिको प्रभावित कर सकेगा। उन राष्ट्रोने सयुक्त राष्ट्रसघमे अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नोपर हिन्दुस्तानके विरुद्ध मत दिया है। अपनी देशभक्ति और सदाशयताके कारण ही हम ऐसा सोचते है । किन्तु इस गुरुतर कार्यको करनेके लिए न तो हमारे पास सैनिक शक्ति है न नैतिक बल । गाधीजीके बताये हुए मार्गोको तिलांजलि देकर हम कबतक उनका नाम वेचते रहेगे। हमने जो कुछ नैतिक शक्ति सचित की थी वह नष्ट हो रही है । हिन्दुस्तान केवल मनुष्यकी विवेक-बुद्धिसे नैतिक अपील कर सकता है, किन्तु उसके लिए हम दिनोदिन असमर्थ हो रहे है । यह अत्यन्त दुखकी बात है कि हिन्दुस्तान पण्डित नेहरूकी महती विचार और कार्य- शक्तिका कुछ मनोवैज्ञानिक कारणोसे पूरा लाभ नहीं उठा पा रहा है । क्या ही अच्छा होता अगर हमारे प्रधान मन्त्रीजी राष्ट्रमण्डलके फन्देसे बाहर निकलकर विश्वको एक नये दृष्टिकोणसे देखते । लखनऊमें ९ अगस्तको भाषण--कामनवेल्थविरोधी' ८ अगस्त सन् ४२ को काग्रेसने यह फैसला किया था कि हमारे नये विधानमे देशकी राजनीतिक ताकत किसान-मजदूरके हाथमे दी जाये, परन्तु लोगोके दिल-दिमाग इस फैसलेको माननेके लिए तैयार नही किये गये थे। सन् ४२ की क्रान्ति शुद्ध राजनीतिक १. 'जनवाणी'-जून १९४६ ई० २. सन् १९४६ ई०
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