१४६ राष्ट्रीयता और समाजवाद . उनमे एक यह भी था और वह मतभेद १९१६ तक बना रहा । इसी प्रश्नको लेकर १६२८ मे पण्डित नेहरूने अन्य लोगोके सहयोगसे इण्डिपेण्डेन्स आफ इण्डिया लीगकी स्थापना की। इसी प्रश्नपर १९२८ की कलकत्ता-काग्रेसमे उन्होने गांधीजी तथा मोतीलालजीका विरोध किया और अपने इसी विचारके कारण ही १९२६ में वह भारतीय युवकोके हृदय सम्राट बने । इसमे जरा भी सन्देह नही कि जब उन्होने ब्रिटेनसे पूर्ण सम्बन्ध विच्छेदका जोरदार समर्थन किया तो उनके अन्दर कोई ब्रिटिश-विरोधी भावना काम नही कर रही थी, बल्कि इसके लिए कुछ विशेष कारण थे। हमलोग भी उन दिनो अलगावकी नीतिके समर्थक नही थे। अतएव अगर हमे उस ध्येयका जिसे मैं अपने विद्यार्थी-जीवनसे ही ही मानता रहा हूँ परित्याग करना है तो मैं उन विशेष कारणोको जानना चाहूँगा जिनसे आज हमे अपनी नीतिमे परिवर्तन करनेकी आवश्यकता पड़ी। मै अत्यन्त नम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि पण्डित नेहरूके पत्र-प्रतिनिधि सम्मेलनवाले भाषणसे तो उनके ब्राडकास्ट भाषणका प्रभाव भी नष्ट हो गया। विगत कुछ वर्षोमे जब कभी हमलोगोका उनसे मतभेद हुआ तो वह विना कोई दलील दिये ही हमलोगोपर संकुचित दृष्टि और नारोमे चिपके रहनेका आरोप लगाते रहे है, किन्तु यह कोई दलील नही और इससे तो वामपक्षियोपर उनका आक्रोश ही प्रकट होता है । वह हमारी मखौल उड़ा सकते है और दोषारोपण भी कर सकते है, किन्तु किसी विरोधीको प्रभावित करनेका यह तरीका नही है । मैं उनकी काफी इज्जत करता हूँ और उनसे व्यर्थ विवाद नही करना चाहता, किन्तु मै यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अगर हममेसे कुछ लोग विगत २५ वर्षोंके राष्ट्रीय आन्दोलनके विचारो और विश्वासोसे बुरी तरह चिपके हुए है और जो आज भी पूर्ण नहीं हुए है तो दूसरी ओर प्रधान मन्त्रीजी भी ब्रिटिश शासनकी नौकरशाही व्यवस्था तथा अन्य कुरीतियोंमे बुरी तरह उलझ गये है । वह वर्तमान परिवर्तनशील जगत्मे प्रगतिशील विचार और कार्यकी आवश्यकताका उपदेश देते है, किन्तु उनकी सरकारको नीति स्वय द्विविधा और भीरुतापूर्ण है और अगर वह यथास्थितिको कायम नही रखना चाहती तो समझौतावादी तो अवश्य है । इतने दिनोके सरकारी अनुभवसे अब उनके पुराने आदर्शो एव सिद्धान्तोकी व्यावहारिकतामे वह आस्था नही रही। उनकी वाते तथा कार्य सभी गोलमटोल होते है । यही कारण है कि उन्होने निश्चत और ठोस सम्बन्धकी अपेक्षा एक अनिश्चित और गोलमटोल सम्बन्धको अधिक पसन्द किया । इससे यह सिद्ध करना चाहते है कि वह अलगावकी नीतिके समर्थक नही है और उन लोगोंके साथ मैत्री-सम्बन्ध कायम रखना चाहते है जिनको वह जानते है तथा जिनके विचारोसे वह काफी सहमत है। मैने अपने एक पूर्व वक्तव्यमे राष्ट्रमण्डलमे सम्मिलित होनेके विरुद्ध अपने विचारोको संक्षेपमे कह दिया था। इधर राष्ट्रमण्डलके सदस्य-राष्ट्रोके राजनीतिज्ञोने पण्डित नेहरूकी प्रशसाका जो राग अलापा है उससे मेरे विचारोकी पुष्टि ही हुई है। अब तो हम जालमे फँस चुके है और विधान चाहे जो कुछ भी हो, ब्रिटिश राजनीतिज्ञ अव हमको यूरोपीय राजनीतिमे अधिकाधिक फँसानेका खेल शुरू करेगे। कहा जाता है कि राष्ट्र-
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