लोकतन्त्रको स्थापनाका मार्ग १४३ है। ऐसे क्रान्तिकारी जन-सघटनके नैतिक प्रभावसे लोकतन्त्रीय ढंगसे शासित स्वतन्त्र व्यक्तियोवाले समाजके निर्माणमे सहायता मिलेगी। इसके अतिरिक्त इस वातका भी प्रयत्न होना चाहिये कि देशके पिछड़े हुए भागोकी सास्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक उन्नति हो सके । इन्ही तरीकोसे हम भयकर सामाजिक विपमताको समाप्त कर सकते है जिससे आज हमारा सामाजिक संघटन दूपित हो गया है । साथ ही राज्यका यह विशेष कर्तव्य होना चाहिये कि वह प्रत्येक समूहको उन्नतिका समान अवसर प्रदान करे । सरकारी व्यवस्था चाहे वह कितनी ही कुशल क्यो न हो, अकेले इन उद्देश्योकी प्राप्ति नही कर सकती है । गैर-सरकारी सस्थाअोकी स्थापना करनी होगी और उनके द्वारा सरकारी कार्योको पूरा करनेके लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन प्रारम्भ करना होगा । काग्रेस-संघटन, जो चुने हुए कुशल लोगोका समूह रहा है, का इस कार्यमे उपयोग किया जा सकता है। काग्रेसमे आदर्शवाद और आत्मत्यागकी भावनाकी कमी नही है। यदि आज यह पतनोन्मुख है, तो इसका एकमात्र कारण परिवर्तित परिस्थितियोके अनुकूल लक्ष्य और कार्यक्रमका अभाव है। राष्ट्रद्वारा अपनायी जानेवाली आधारभूत नीतियोके मूल स्रोतके रूपमे काग्रेसका जो महत्व अवतक रहा है उसे वह तेजीसे खो रही है। इसका काम अब केवल चुनाव लड़ना और सरकारके निर्णयोकी स्वीकृति देना मात्र रह गया है। प्रत्येक व्यक्ति इसको सुसघटित करनेकी वात करता है, किन्तु इस समस्यापर विचार करनेके लिए किसीको समय नहीं है। इस आत्मसन्तोषका, जिससे सारा राष्ट्र पीड़ित है, अवश्य अन्त होना चाहिये । यह सोचना गलत है कि जबतक गाधीजी और जवाहरलाल- जी मौजूद है तबतक राष्ट्रका भाग्य इनकी मुट्ठियोमे सुरक्षित है। हमे स्मरण रखना चाहिये कि किसी संघटनका महत्व उसके उच्च नेतामोद्वारा नही बल्कि उसके साधारण कार्यकर्तामोद्वारा ऑका जाता है। भारत अपनी ह्रासावस्थामे भी कितने ही महान् पुरुषोको जन्म दे चुका है, किन्तु सर्वसाधारण व्यक्तिको उठाया नही जा सका । जो राजनीतिक पद्धति उच्च नेताअोपर इस प्रकार आश्रित रहती है, उसमे कोई मौलिक दोष अवश्य है। मेरी रायसे यह मनोवृत्ति हमारी उस सामाजिक व्यवस्थाकी देन है जो पीडित करके थोडेसे ऐसे विशेष व्यक्तियोको जन्म देती है जो इन लाखो व्यक्तियोके उद्धारके रूपमे सामने आते है। लोकतान्त्रिक सरकारका कार्य चलानेके लिए औसत दर्जेकी योग्यतावाले व्यक्तियोकी बडे पैमानेपर आवश्यकता है । साधारण जनता कैसे ऊँची उठायी जाय और उसे लोकतान्त्रिक जीवन-प्रणालीकी शिक्षा कैसे दी जाय यही हमारी समस्या है । क्या हम इस कार्यको पूरा कर सकेगे।' 0 हिन्दुस्तान और राष्ट्रमण्डल (१) यह बडे दु खकी बात है कि हिन्दुस्तान धीरे-धीरे उन सभी घोषित आदर्शोको छोड़ता जा रहा है, जिनके लिए उसने गत २० वर्षोंसे संघर्ष किया था। धीरे-धीरे हम परस्पर १. 'समाज' १० जुलाई १९४७ ई०
पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।