मध्यकालीन सरकार १२७ अन्यथा उसको विधान वनानेकी स्वतन्त्रता है । पुनः क्रान्तिके सफल होनेके पश्चात् उसका निर्माण नही हुआ है । हाँ,ब्रिटिश गवर्नमेण्टने भारतके स्वतन्त्रताके हकको तथा भावी विधान बनानेके हकको स्वीकार कर लिया है। किन्तु उसकी एक शर्त यह भी है कि अल्पसंख्यक समुदायोके हितोकी रक्षाका विधान दिया जाय तथा उसके साथ कुछ प्रश्नोके निपटारेके लिए सन्धि की जाय । ये प्रश्न क्या है और उनका निपटारा ब्रिटिश गवर्नमेण्ट किस प्रकार चाहती है यह हमको नही बताया गया है। मुझको यही बात सवसे अधिक खटकती है। रास्तेके खतरे इसमें सन्देह नही कि ब्रिटिश गवर्नमेण्टने समझ लिया है कि वह अव भारतपर पुराने ढंगसे शासन नही कर सकती। दिन प्रति दिनके शासनका काम वह भारतको सौपना चाहती है, किन्तु अपने आर्थिक हितोको वह सुरक्षित रखना चाहती है, क्योकि यदि उसका व्यापार बढता नही तो वह इङ्गलैण्डकी जनताको सन्तुष्ट नही रख सकती। वह यह भी चाहती है कि फौजी दृष्टिसे भारत उसका मित्र रहे तथा युद्धकी अवस्थामे भारतसे उसको पूरी सहायता मिले । इस सम्बन्धमे ब्रिटिश सेनाके एक भागको वह हमारे देशमे कुछ वोंके लिए रखनेकी माँग कर सकती है । ब्रिटिश अफसरोद्वारा भारतीय सेनाकी शिक्षा हो, ब्रिटेनसे ही लडाईका सामान खरीदा जाय तथा युद्धको अवस्थामे उसको मार्गकी सुविधा रहे और हर तरहकी मदद दी जाय, ये सव माँगे भी हो सकती है । मित्र, ईराकमे ऐसा ही हुआ है । ब्रिटिश गवर्नमेण्टका यह रवैया रहा है कि सन्धि-पत्रकी पहली धारामे वह पूर्ण स्वतन्त्रताको स्वीकार करती है और अगली धारायोमे उसपर अनेक प्रकारके प्रतिबन्ध लगा देती है । मुझे सबसे अधिक भय सन्धि-पत्रकी शर्तोसे है और आज जब उसकी उपेक्षा की जाती है तो मुझे आश्चर्य होता है । मेरी रायमे जहाँ और वातोका स्पष्टीकरण कराया गया, वहाँ इसका भी स्पप्टीकरण होना चाहिये था। पुन. वालिग मताधिकारके अनुसार विधान-परिपद्का न चुना जाना एक वडी कमी है । वालिग मताधिकार स्वयं एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त है। यदि विधान परिषद्का चुनाव इस सिद्धान्तके अनुसार होता तो देशका वातावरण ही दूसरा होता । उस अवस्थामे जनता सजग होती, विधान- परिषद्से उसका प्रत्यक्ष सम्वन्ध स्थापित होता और वह परिपद्के कामोमे दिलचस्पी लेती । क्रान्तिके सफल होनेके पश्चात् तो जनताकी सक्रियता बहुत वढ जाती है । इस लाभसे हम वञ्चित है। हमारे देशमे जो प्रयोग इस समय हो रहा है वह एकदम नया है । इसकी सफलताके सम्बन्धमे मतभेदकी सम्भावना बनी रहती है । जो इस प्रयोगके पक्षमे है वे भी निश्चित रूपसे नही कह सकते कि इसके द्वारा हमारा लक्ष्य अवश्य प्राप्त होगा। इसीलिए वे क्रान्तिकारी मनोवृत्तिको बनाये रखने और अपने सगठनको सुदृढ बनानेका उपदेश देते है । वे इसकी आशा अवश्य रखते है कि समझौतेके मार्गसे सफलता मिलेगी अन्यथा वे समझौता स्वीकार ही क्यो करते ?
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