समझौता विरोधी सम्मेलन ९७ हम संस्थाकी महत्ताको मानते है साथ ही साथ हमे न भूलना चाहिये कि संस्थाका नष्ट करना सहल हो सकता है सस्थाका बनाना उतना सुगम नही । हमारा तो विश्वास है कि कांग्रेसमे एक सच्चे साम्राज्यविरोधी वननेकी पूरी ताकत है। काग्रेसके ऋमिक विकासका इतिहास इसका साक्षी है । हमारे इस कथनका यह आशय नही है कि कांग्रेसके दूसरे रास्तेपर जानेकी सम्भावना ही नहीं है, किन्तु इसकी अाशा कम है । इसके अतिरिक्त जबतक यह बात स्पष्ट नही हो जाती तवतक अपने तर्काश्रित विश्वासको छोडना भी अनुचित होगा। इस सम्भावनाको दूर करनेका अच्छा उपाय यह नही है कि हम काग्रेसका विरोध करने लगे और पुरानी इमारतको ढहानेकी कोशिश करे, किन्तु हमे उचित साधनोसे काम लेकर खतरेको दूर करने का उपाय करना चाहिये । एक बुनियादी सवाल फारवर्ड ब्लाकके एक दूसरे नेता श्री निहारेन्दु दत्त मजूमदार तो प्रसन्न होगे यदि इस सम्मेलनसे एक वामपक्षी ( left ) काग्रेसका जन्म हो । उन्होने मौजूदा काग्रेसके सामने कुछ शर्ते रखी है । एक शर्त यह है कि वकिंग-कमेटीमे वामपक्षियोका बहुमत हो । जब काग्रेसमे दक्षिणपक्षका वहुमत है तो उनके सामने यह शर्त रखना कि तुम समस्त नैष्ठिक अधिकार वामपक्षको सौप दो, कहाँतक उचित है और इसे कौन माननेको तैयार होगा ? ऐसी असम्भव शर्त रखनेके माने यही होते है कि आप किसी-न-किसी वहानेसे एक नयी काग्रेस बनाना चाहते है । हम जानना चाहते है कि क्या इसी तरह काग्रेसको दो दुकडोमे वाँटकर वामपक्ष प्रवल हो सकता है । यह तो साम्राज्यविरोधियोको कमजोर करनेकी योजना है, इससे तो राष्ट्रीय सग्राम निश्चय ही दुर्वल पड जायगा । यह एक बुनियादी सवाल है। इसकी हम उपेक्षा नही कर सकते । इस समय सत्याग्रह होता है या नही इस प्रश्नका उतना महत्व नहीं है जितना इस नये खडे किये सवालका है। जिन लोगोका काग्रेस संस्थाके प्रति सद्भाव है, जैसा कि काग्रेस समाजवादियोका और रायवादियोका है—वह ऐसी दशामे समझौता विरोधी सम्मेलनको एक साधारण वात समझकर हँसीमे नही टाल सकते । यदि सम्मेलनके पीछे यह गूढ उद्देश्य न होता तो हम किसी-न-किसी तरह इसे वर्दाश्त कर लेते और उतने चिन्तित न होते । किन्तु इस स्पष्टीकरणके वाद कौन कह सकता है यह सम्मेलन काग्रेसके अस्तित्वके लिए खतरनाक नही है। सम्मेलनके प्रमुख काग्नेस-वकिंग-कमेटीको ब्रिटिश साम्राज्यवादका दोस्त और साथी कहकर बदनाम करते है जो काग्रेसके प्रति विरोधके भावको जगाता है । श्री अन्नपूर्णयाका कहना है कि मन्त्रिपद ग्रहणके विरोधमे इस प्रकारका एक सम्मेलन हुआ था, तव आज समझौता विरोधी सम्मेलनका क्यो विरोध किया जाता है। यह मिसाल ठीक नही है क्योकि काग्रेसमे मन्त्रिपद लिया जाय या नही इसपर विवाद होनेवाला था। देशके सामने प्रश्न था कि मन्त्रिपद लिया जाय या शासन विधानमे संकट उत्पन्न किया जाय । यह प्रश्न अनिवार्य हो गया था और इसका उत्तर देना जरूरी था।. ऐसी अवस्थामे जो लोग मन्त्रि पद ग्रहणके विरुद्ध थे उनका इसके विरुद्ध आवाज उठाना ( 19
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