पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९९

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in हिंदुस्तानी हिंदी-भाषी लोग अगर अन्य प्रांतों से ज्यादा उत्साही रहे, और उन्होंने अपनी सब भगिनी भाषाओं से जोरों से लोहा लेना शुरू किया तो उसकी समृद्धि बढ़ेगी ही। लेकिन हिंदी की अपेक्षा यह दीख पड़ती है कि हिंदी जिनकी जन्मभाषा नहीं है, ऐसे लोग हिंदी सीखें और अपने अपने प्रांत में जो कुछ भी हो, उसका हिंदी में अनुवाद करके अपनी बड़ी बहन के खजाने में उतना करभार' पहुँचा दें। यह तो तब हो सकेगा, जब हिंदी अपनी प्रांतीयता छोड़कर, और सांप्रदायिक न रहकर, राष्ट्रीय यानी संमिश्र रूप धारण करेगी-अर्थात् जब वह हिंदुस्तानी बनेगी। हिंदी में इस राष्ट्री- यता को धारण करने के सब तत्त्व हैं इसलिये हिंदी को ही हिंदु- १-~-हिंदी अपनी छोटी बहिनों से 'कर नहीं चाहती। वह तो चाहती है कि उसे अपना ज्येष्ठांश मिले और सभी बहिनों की अनुपम राशि एकत्र रहे। उसका हृदय इतना उदार रहे कि सदा की भाँति सभी बहिनें उसे अपनी माता के स्थान पर पायें और उसके स्नेह से अपने को और भी स्निग्ध करें। २-कितनी विलक्षण सूझ है। सच है-'भारत के चित रहत न चेत् ।' हिंदी में प्रांतीयता' है तो कौन सी, कुछ इसे भी तो बताना चाहिए या यों ही हिंदुस्तानी के जोम में कुछ भी लिख जाना ही स्वधर्म है। रही सांप्रदायिकता' की बात । सो उसके विषय में मौन रहना ही उचित है क्योंकि हिंदू कुछ भी करे वह मुसलिम-दृष्टि में सांप्रदायिक हो नहीं सकता । क्या महात्मा गांधी पर भी इसी 'सांप्रदायिकता का आरोप नहीं होता! फिर इस हौवा का भय क्या?