पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९८

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राष्ट्रभाषा पर विचार जब तक उसमें संस्कृति के इन सब संमिश्र तत्वों का अंतर्भाव न हो। राष्ट्रभाषा ऐसी होनी चाहिए कि जो हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सवों को अपनी सी लगे। जो लोग मानते हैं कि प्रांतीय भाषाओं में केवल प्रांतीय संस्कृति ही व्यक्त होगी, और हिंदी में राष्ट्रीय संस्कृति, वे बड़ी रालती करते हैं। असल वात तो यह है कि प्रांतीय संस्कृति जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। प्रांतीय भाषाओं में अपनी-अपनी विशे- षताएँ हो सकती हैं लेकिन प्रांतीय साहित्य में यह जरूरी नहीं है कि वह केवल प्रांतीय ही हों। किसी भी प्रांतीय भाषा ने यह निश्चय नहीं किया है कि उसकी विविधता और समृद्धि हिंदी की विविधता और समृद्धि से कम हो । जो अच्छी-अच्छी बातें बँगला साहित्य में पाई जाती हैं, उन सबको मराठी या गुजराती में लाने की मेरी कोशिश रहेगी ही। कन्नड़ तेलगू या तामिल भाषा बोलने वाले लोगों को क्या इससे संतोष होगा कि चूंकि अन्य प्रांतीय साहित्य में जो कुछ अच्छा है, वह हिंदी में पाया जाता है, इसलिये उसका अनुवाद अपनी भाषा में न हो, तो भी चलेगा ? हर एक प्रांतीय भाषा दिन पर दिन समृद्ध होती ही चलेगी। १-क्या कोई भी अभिज्ञ व्यक्ति यह सिद्ध कर सकता है कि हिंदी में इन संमिश्र तत्त्वों का अभाव है ? हम नहीं समझ पाते कि वस्तुतः श्री काका कालेलकर का इष्ट क्या है। सच तो यह है कि जो हिंद को अपना नहीं समझता वही उसकी राष्ट्रभाषा हिंदी से भी दूर भागता है। कोई कहने को कुछ भी कहे पर इतिहास और साहित्य की साखी तो यही है। देखने का कष्ट करें।