पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९७

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560 हिंदुस्तानी है। इसी को मजबूत बनाने का सवाल है । जहाँ-जहाँ विविधताएँ एकता को तोड़ने की कोशिश करती हैं, वहाँ वहाँ उन पर अंकुश चलाकर उन्हें एकता की मददगार बनाना है। इसलिये हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा में विविधता के सब तत्वों को स्वीकार करते हुए, उसमें एकता को दृढ़ करने की कोशिश करनी है। अहिंसा, प्रेम प्रेमोचित त्याग और सर्वसमन्वय के मार्ग से ही हम भारतवर्ष की मूलभूत एकता को दृढ़ कर सकते हैं। हिंदुस्तानी को सिर्फ बोल-चाल की भाषा कहना और उसे राष्ट्रभाषा का स्थान न देना, हिंदुस्तान की एकराष्ट्रीयता को कमजोर बनाना है। जब हिंदुस्तान की संस्कृति ही संमिश्र ( कॉम्पोजिट) है, तब कोई भी भाषा तब तक हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती, जैसे अाज उस राष्ट्र के बिच्छेद का काम 'मुसलिम लीग' कर रही है वैसे ही उस 'राष्ट्रभाषा' के विच्छेद का काम कभी ( मोहम्मदशाह रंगीले के शासन १७४४-१७४५ ई० में ) उर्दू (दरबार) के ईरानी-तूरानी दल ने किया था । अस्तु राष्ट्र के क्षेत्र में जो 'पाकिस्तान' है भाषा के क्षेत्र में वही 'उर्दू' है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं। १--यह तर्क नहीं अभिशाप है जो मूलतः भाषाओं की अनभिज्ञता के कारण उठा है और पटु परदेश-प्रिय मुसलमानों के घोर प्रयल के कारण प्रचार में आया है। इसे हम चाहें तो इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जैसे 'पाकिस्तान' ने 'दारुल इसलाम' की जगह ली वैसे ही हिंदुस्तानी ने उर्दू की ! रंग वही पर ढंग में थोड़ा अंतर है।