पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९५

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हिंदुस्तानी में से अरबी फारसी के गढ़' शब्दों का बहिष्कार नहीं चाहते। हिंदी सब की भाषा है, केवल हिंदुओं की नहीं। हिंदी के ऊपर पारसी ईसाई आदि सबों का उतना हो अधिकार है जितना हिंदुओं का है इसलिये राष्ट्रभाषा के प्रश्न को सांप्रदायिक नहीं बनाना चाहिए, ऐसा भी कहते हैं। उर्दू के खिलाफ उनकी इतनी ही शिकायत है कि उसमें अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार हद से ज्यादा है। अरवी और फारसी दोनों भाषाएँ न हिंदुस्तान में बोली जाती हैं, न उनका अध्ययन हिंदुस्तान के अधिकांश लोग करते हैं । राष्ट्रभाषा तो ऐसी हो कि जिसमें देशी शब्द ज्यादा हों और प्रांतीय भाषाओं के लिए वह १-ध्यान देने की बात है कि अरबी-फारसी रूढ़ शब्दों का बहिष्कार कोई भी विवेकशील कट्टर हिंदी-भक्त भी नहीं चाहता है पर वह यह मान नहीं सकता कि किसी टोली विशेष में प्रचलित सभी अरबी-फारसी शब्द रूढ़ अथवा ठेठ हो चुके हैं। २-~-यदि बात यहीं होती तो राष्ट्रभाषा का प्रश्न कभी सुलझ गया होता। उर्दू के प्रति हमारी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि उसकी प्रवृत्ति अरबी-फारसी वा अहिंदी है। उसका इस राष्ट्र से नाता नहीं । वह सदा इस राष्ट्र से बिचकती और ईशन-तूरान वा अरब का दम भरती है । वह जन्मो तो यहाँ पर हो गई परितः वहाँ की। उसने अपने को त्याग कर दूसरे के कुल को अपना लिया । ३- हमें इस व्यापक नम से शीघ्र मुक्त होना चाहिए । वास्तव में भाषा शब्दों के जोड़ से नहीं बनती कि उसमें भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों का अनुपात निकाला जाय । भाषा तो किसी राष्ट्र वा व्यक्ति को व्यक्ति का नाम है। वह अपने राष्ट्र वा व्यक्ति की प्रवृति को छोड़ नहीं सकती । राष्ट्रभाषा में हम इसी 'प्रवृत्ति को हूँढ़ते हैं, कोरे शब्दों को नहीं।