पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९४

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राष्ट्रभाषा पर विचार जाय कि फिर पारसियों का और ईसाइयों का क्या ? बौद्धों का और यहूदियों का क्या ? तो वे कहेंगे कि वे भी अपनी-अपनी भाषाएँ चलायें, हमें एतराज नहीं देश के जितते टुकड़े हो जायें, अच्छे ही हैं। जो लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का ही है, उनका रास्ता भी बिलकुल आसान है। वे कहेंगे कि दूसरे सब धर्मों के लोग हिंदुस्तान में आश्रित होकर ही रह सकते हैं, और उन्हें हिंदुओं की हिंदी ही राष्ट्रभाषा के तौर पर सीखनी होगी। लेकिन देश में राष्ट्रीय वृत्ति के असंख्य लोग हैं, जो हिंदुस्तान को हिंदू मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, पारसी सबका स्वदेश' मानते हैं। वे दो भाषाओं का पुरस्कार किस तरह से कर सकते हैं। हम जानते हैं कि हिंदी ही को राष्ट्रभाषा कहनेवाले लोगों में भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो बिलकुत्त राष्ट्रीय वृत्ति के हैं। वे हिंदी १-परंतु विचारणीय बात यह है कि क्या स्वयं मुसलिम भी हिंदुस्तान को अपना 'स्वदेश' मानते हैं। और तो और, उर्दू के प्रसिद्ध स्व. कवि सर शेख मोहम्मद इकबाल जो मूलतः कश्मीरी ब्राह्मण थे और कभी 'हिंदी है हम वतन है हिंदोस्ताँ हमारा' का पाठ पढ़ाते थे अंत में 'मुसलिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा' का डंका पीटकर मरे । उर्दू साहित्य में तो कोटियों प्रमाण भरे हैं जिनसे सिद्ध होता है कि मुसलिम कभी भी हिंदुस्तान को अपना 'स्वदेश' नहीं समझते। उनका स्वदेश' तो ईरान-तूरान श्रथवा अरब है। यहाँ तक कि होते-होते आजमगढ़ के त्व. मौलाना शिवली भी 'बिनवली' से 'नुनमानी', हिंदी से ईरानी बन गए ।