पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९२

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राष्ट्रभाषा पर विचार कहा जा सके, वे कारण ऊपर मैं संक्षेप में दे चुका हूँ। लेकिन इस तरह के विचार सिर्फ मेरे ही नहीं हैं। प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डा. धीरेंद्र वर्मा ने भी, जो सचमुच ही हिंदुस्तानी के खास पक्षपाती नहीं हैं, हिंदी साहित्य के अपने इतिहास में और ब्रजभाषा के व्याकरण में हिंदी विचारों को व्यक्त किया है, जो उनकी पुस्तकों में देखे जा सकते हैं।" वर्नाक्यूलर सोसाइटी, अहमदाबाद से साढ़े तीन रुपये में मिल जायगी और आशा है डाक्टर साहब को कुछ ठीक ठीक सुझा सकेगी। डाक्टर साहब को समझ लेना चाहिये कि 'दक्खिनी' उर्दू नहीं है। उर्दू से उसका स्पष्ट भेद समझना हो तो 'दक्खिनी' 'श्रागाह' का यह शब्द सुनें और इसकी पंडित-शैली को भी देखें । कहते हैं- "और उर्दू के भाके में नहीं कहा | क्या वास्ते कि रहनेवाले यहाँ के इस भाके से वाकिफ नहीं है। ऐ भाई! यह रिसाले दक्खिनी ज़बान में हैं।" ( दास्ताने उर्दू, लक्ष्मीनारायन अग्रवाल, आगरा, पृ०४८) १--डाक्टर धीरेंद्र वर्मा के उक्त इतिहास का पता नहीं। हाँ, यदि डाक्टर साहब का तात्पर्य डाक्टर रामकुमार वर्मा के इतिहास से है तो बात ही और है। हमें उसके संबंध में कुछ नहीं कहना है ।