पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९१

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डॉक्टर ताराचंद और हिंदुस्तानी कबीर की और दूसरे भक्तों की रचनाएँ, फिर असल भाषा कुछ ही क्यों न रही हो, खास तौर पर बरजबान याद कर ली जाती थी और इस तरह उनका मौखिक प्रचार ही अधिक होता था ! जब ब्रज की वाड़ जोरदार बनी, तो बड़ी आसानी से उनकी रचनाओं पर भी ब्रज का असर पड़ा और उनमें ब्रजपना' आ गया। १०-जिन कारणों से मैं यह मानता हूँ कि ब्रजभाषा में ऐसा कोई असली साहित्य नहीं है, जो १६ वीं सदी से पहले का और 'चंडीदास' बता सकते हैं। 'बजबुली' साहित्य का श्रेय वल्लभाचार्य को नहीं गौरांग प्रभु को है। चैतन्य के शिष्यों वा बंगालियों को कृष्पादास ने किस प्रकार खदेड़ा इसको 'वार्ता' में पढ़ देखिए । यह जान लीजिए कि 'वैभव बढ़ाने के लिए ही यह कांड रचा गया । हाँ, ब्रज-साहित्य-उत्कर्ष में अवश्य ही वल्लभाचार्य का विशेष हाथ है, पर उदय में नहीं । १-उर्दू का इतिहास पुकारकर बताता है कि उर्दू ब्रज को 'मतरूक कर आगे बढ़ी और उसके प्रभाव तथा भ्रष्ट लिपि के कारण ही ब्रज के अनेक रूप खड़ी बोली के रूप पड़े गये। इसी से 'श्राजाद' ने उर्दू को ब्रजभाषा की बेटी कहा है ! 'जपना' 'साखी' में क्यों नहीं पाया ? कुछ इसका भी विचार है ? 'सास्त्री का प्रचार 'रमैनी' और 'शब्द' से कहीं अधिक है। समझा न ? २-डाक्टर साहब से हमारा साग्रह अनुरोध है कि कृपा करके १६ वीं शती से पहले की हिंदुस्तानी यानी उर्दू के असली साहित्य को प्रकट करें और एक बार डाक्टर सुनीतिकुमार चाटुा की नवीन पुस्तक 'इंडो आर्यन ऐण्ड हिंदी' का अाँख खोलकर अध्ययन करें और फिर देखें कि वस्तुस्थिति वस्तुतः क्या है। उक्त पुस्तक गुजरात