पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/९

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कुछ और भी 'राष्ट्रभाषा पर विचार' का द्वितीय संस्करण सामने है । इसमें बढ़ाया अधिक और रताचा कल गया है। पुराने लेखों में से केवल 'उद्धार का उपाय' हटाया गया है। शेष लेख यथास्थान बने हुए हैं । पुल्लक का प्रकाशन संवत् २००२ विक्रम में हुआ था। तब से अब तक स्थिति में जो परिवर्तन हुआ है वह भी इस संस्करण में आ गया है। कहने को तो राष्ट्रभाषा की उलझन' सुलझ गई है। पर सच पूछा जाय तो अाज भाषा की उलझन पहले से कहीं अधिक जटिल हो गई है। उर्दू के भक्त अभी हिंदी को जी से अपनाना नहीं चाहते। हिंदुस्तानी के लोग आज भी उसके लिये सत्त साधने को तैयार है। ऐसी स्थिति में कहा नहीं जा सकता कि हिंदी के स्वरूप का सबको सच्चा बोध हो गया है । इसके अतिरिक्त अन्य भाषाभाषी अब हिंदी को सशंक दृष्टि से देखने लगे हैं और मन ही मन सोचने क्या कहीं कहीं खुलकर कहने भी लगे हैं कि यह तो अंग्रेजी की भाँति ही हमारी निज की देशभाषा को पनपने देना नहीं चाहती। इन सब भावनाओं के कारण हमारी प्रगति में जो बाधा पड़ रही है वह किसी से अोल नहीं किंतु ठीक ठीक जो बात दृष्टि में नहीं आ पाती है उसको दूर करने का उपाय । अपनी समझ ने जहाँ तक साथ दिया है उसले यही काम लिया गया। प्राशा है इससे भाषा के क्षेत्र में स्फूर्ति मिलेगी, प्रकाश मिलेगा और मिलेगा कुछ ऐसा उपाय भी जिससे हम भाषा उलमान से मुक्त हो राष्ट्रभाषा पर परितः विचार कर उसके द्वारा राष्ट्र का विकास विश्व का कल्याण तथा अपना उद्धार कर सकेंगे। ऐसा ही हो यही हृदय की सच्ची कामना है। काशी अक्षय तृतीया, संवत् २००८ विक्रम चंद्रबली पांडे