पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८९

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७६ राष्ट्रभाषा नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि इन रचनाओं की भाषाओं के वारे में श्राम तौर पर लोगों की जो राय बनी हुई है, दरअसल उसके लिए बहुत कम आधार है। कुछ दूसरी बातें भी परिणाम पुष्ट करती हैं। यह तो एक जानी हुई वात है कि कोई भी बोली या जवान तब तक साहित्य के पद और प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होती, जब तक उसकी पीठ पर कोई मजबूत सामाजिक बल न हो । यह बल' या तो धार्मिक हो सकता है या राजनैतिक ! पाली और धर्ममागधी की जो प्रतिष्ठा बढ़ी, सो इसलिये कि ये दोनों बौद्ध और जैन सुधारों की वाहन बनी थीं । हिन्दुस्तानी ने जो साहित्यिक दर्जा हासिल किया, सो इसलिये कि उसे मुस्लिम उपदेशकों और बादशाहों का सहारा मिल गया था। राजस्थानी, जो १४ वीं, १५ वीं और १६ वीं सदियों में उत्तरी हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से की साहित्यिक जवान थी, इसलिये बढ़ी और लोकप्रिय हुई कि उसके पीछे मेवाड़ के महान् सिसोदियाओं का बल था। जब मुग़लों ने मेवाड़ के राणाओं को हरा दिया, तो राजस्थानी भी एक प्रादेशिक भाषा बनकर रह गई। इसी तरह जब हम ब्रजभाषा का विचार करते हैं, तो हमें १६ वीं सदी तक उसका समर्थ करनेवाली किसी राजनैतिक या धार्मिक हलचल का पता नहीं चलता ! ब्रज कभी किती सत्ता का हैं। उनकी गीत भाषा ग्वालियरी अथवा ब्रज नहीं तो क्या उर्दू या हिन्दुस्तानी होगी? १-क्या डाक्टर ताराचंद यह बताने की कृपा करेंगे कि अवधी भाषा में साहित्य का निर्माण किस प्रकार हुआ और उसके काव्य-प्रयोग का कारण क्या हुआ ? उसे भी जाने दीजिए। मैथिली का इतिहास