पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८८

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डॉक्टर ताराचद और हिंदुस्तानी और बहुत ज्यादा पंजाबीपन लिये हैं। कबीर ने खुद कहा है कि उन्होंने पूरबी बोली का उपयोग किया है, और उनकी कई ऐसी रचनाएँ हैं, जिनकी भाषा पर राजस्थानी का बहुत प्रभाव मालूम होता है, ऐसी हालत में कबीर के ग्रन्थों की भाषा के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इस सवाल को यह कहकर हल करने की कोशिश की है कि कबीर ने अपनी साखियों में साधुकरी (सधुक्कड़ी) का और रमैनी व शब्दों में काव्य-भाषा या ब्रज का उपयोग किया है। लेकिन उनका यह हल शायद ही सन्तोषजनक हो। क्योंकि इससे कार की अपनी बात का खंडन होता है। दूसरे, प्रामाणिक दस्तावेजों के अभाव में इसको सिद्ध करना भी सम्भव नहीं है। ८-इस प्रकार जितनी ही आप इन साहित्यिक रचनाओं की जाँच-पड़ताल करते हैं, उतनी ही मजबूती के साथ आपको इस १-खुले, डाक्टर साहव खूब खुले। हिन्दुस्तानी के डाक्टर ताराचंद जो ठहरे! 'शुरु ग्रंथ साहब' तो प्रमाण नहीं, स्वयं डाक्टर साहब प्रमाण हैं। कारण हिन्दुस्तानी के भक्त और एकता के पुजारी जो हैं। नहीं तो श्राप किस आधार और किस बूते पर कह सकते हैं कि 'कबीर ने खुद कहा है कि उन्होंने पूरबी बोली का उपयोग किया है !' क्या महात्मा जी एवं काका कालेलकर उनसे उक्त प्रमाण का 'दस्तावेज मांग सकते हैं अथवा 'हिन्दुस्तानी' के नाम पर सभी कुछ सम्भव और प्रमाण होता रहेगा ? 'पूरबी बोली' का अर्थ यह कैसे हो गया कि वस्तुतः इसी बोली में उन्होंने कविता भी की है ? २-डाक्टर साहब को फिर बताया जाता है कि कुछ संगीत- भाषा का अध्ययन करें और कृपया भवालियरी' को भूल न जाएँ। ग्वालियर आज भी संगीत का अड्डा है। कबीर के 'पद' गाने ही