पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८७

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राष्ट्रभाषा नगण्य से प्रमाण के आधार पर ब्रज के इतिहास का ठेठ खुसरो से संबंध जोड़ना विज्ञानसम्मत तो नहीं कहा जा सकता। (इ) आगे चलकर यह कहा गया है कि नामदेव, रैदास, धना, पीपा सेन, कबीर आदि संत और भक्त ब्रज कवि थे। इनकी बानी और पद गुरुप्रन्ध में दिये गये हैं। वे कहाँ तक प्रामाणिक माने जा सकते हैं, सो एक अनसुलझी समस्या ही है। नामदेव एक मराठा संत थे, जो १३ वीं सदी में हो गये। उन्होंने हिन्दी में कुछ लिखा था या नहीं, सो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। क्योंकि गुरुग्रंथ का संकलन १७ वीं सदी के शुरू में हुआ था। दूसरे सन्तों और भक्तों की रचनाओं के कोई प्रामाणिक हस्त- लिखिस ग्रंथ भी नहीं मिल रहे हैं। इन संतों और भक्तों में १५ वीं सदी के कबीर ही सबसे ज्यादा मशहूर हैं। गुरुग्रंथ में उनकी बहुत सी रचनाएँ पाई जाती हैं। उनकी भाषा पर पंजावी का जबर्दस्त असर है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा ने रायबहादुर श्यामसुन्दरदासजी द्वारा संपादित कबीर की ग्रंथावली प्रकाशित की है, जो सन् १५०४ के एक हस्तलिखित प्रति के आधार पर तैयार की गई कही जाती है। लेकिन इस तिथि की प्रामाणिकता के संबंध में भी गंभीर शंकाएँ उठाई गई हैं ( देखिए, डा. पीतांवरदत वढ़थ्वाल कृत हिंदी काव्य में निर्गुणवाद' ), बहरहाल, इस संस्करण की भाषा भी गुरुग्रंथ में पाये जानेवाले पदों की भाषा से मिलती-जुलती है, खुसरो की उस हिंदी प्रशंसा का अर्थ क्या ? अरे आप कुछ भी कहें, अमीर की साखी तो 'हिंदी' के पक्ष में ही है, हिंदुस्तानी अथवा 'अरबी- फारसी के पक्ष में कदापि नहीं। ३-क्या आपको यह भी बताना होगा कि खुसरो की जन्मभाषा व्रजभाषा ही थी और वे जन्मे भी थे ब्रजभाषा के एटा' प्रांत में ?