पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८६

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डॉक्टर ताराचंद और हिंदुस्तानी नहीं दे सके हैं। कुछ हिंदी लेखकों ने खुसरो के खिन खाँ और देवलरानी नामक काव्य का यह अंश पढ़ा है, जिसमें हिंदी की तारीफ की गई है। इस पर से उन्होंने यह नतीजा निकाला कि खुसरो हिंदी का प्रशंसक और कवि था। लेकिन उस अंश को ध्यान से पढ़ने से यह विलकुल साफ हो जाता है कि वहाँ खुसरो का मतलब बज या हिंदुस्तानी से नहीं था इस को चरितार्य करते हैं और आँख होते हुए भी अपनी आँख से काम नहीं लेते। उनके उर्दू के पक्के मौलवी कुछ भी कहते रहे पर अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी की घोषणा है- अमीर (खुसरो) को अपने हिन्दी कलाम पर जो नाज़ था बह उनके इत्त शेर से नुमायाँ है...... चू मन तूतिये हिन्दम् अर रास्त पुर्सी, जे मन हिन्दवी पुस ता नगज़ गोयम् ।” कितनी विलक्षण वात है कि उवर तो खुसरो यह अभिमान करते हैं कि 'वस्तुतः मैं हिन्दी तूती हूँ और यदि तू सच सच पूछे तो मुझसे हिन्दवी में पूछ जिससे मैं बड़िया कहूँ' और इधर हमारे सपूत डाक्टर साइव इधर-उधर की बातों में यह उड़ा देना चाहते हैं कि वास्तव में अमीर खुसरो ने हिन्दी में भी कुछ रचना की। हम अभी डाक्टर ताराचन्द से केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि जनाब जरा उक्त सैयद साहब की 'नुकूशे सुलैमानी' का पृष्ठ ४७ भी देखलें। श्राशा है, अापको पता हो जायगा कि भाषा के क्षेत्र में आप कितने पानी में हैं। ८-न सही । पर कृपया यह तो बताइए कि उसका 'मतलब' किससे था। 'संस्कृत' तो सम्भवतः श्रापको इष्ट नहीं, क्योंकि उसी के विनाश के लिये तो यह हिन्दुस्तानी का चक्र चला है। तो फिर अमीर