पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८५

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राष्ट्रभाषा ७५ कत्रि है, जिसने, कहा जाता है कि ब्रज (पिंगल ) का उपयोग किया था। यह चंदबरदाई पृथ्वीराज (२२ वीं सदी ) का सम- कालीन माना जाता है। रासो के सम्बंध में एक प्रबल मत यह है कि वह नकली काव्य है । वुहलर, गौरीशंकर, हीराचन्द ओझा, ग्रियर्सन और दूसरे विद्वान् उसकी प्रामाणिकता में संदेह रखते हैं उसकी भाषा में आधुनिक और प्रचलित भाषा का अजीव मिश्रण है। उसकी कथा-वस्तु इतिहास के विपरीत पड़ती है और उसके रचयिता के बारे में भी शक है। इन प्रमारणों के आधार पर पंडित रामचन्द्र शुक्ल इस नतीजे पर पहुँचे थे कि 'यह ग्रंथ साहित्य के या इतिहास के विद्यार्थी के किसी काम का नहीं है।' (आ) अमीर खुसरो दूसरा ग्रंथकार है, जिसके लिये दावा किया जाता है कि वह ब्रज का लेखक था। सन् १३२५ में उसकी मृत्यु हुई । हिन्दी में उसकी कविताओं, पहेलियों और 'दोसखुनों' का कोई प्रामाणिक हस्तलिखित ग्रंथ अभी तक मिला नहीं है। लाहौर के प्रोफेसर महमूद शेरानी ने उस बात को अच्छी तरह साबित कर दिया है कि खालिकवारी (हिंदी और फारसी शब्दों का पद्यवद्ध कोश ), जो खुसरो की रचना कही जाती है, उसकी रचना नहीं हो सकती। उसकी हिंदी कविता की भाषा इतनी आधुनिक है कि भाषाशास्त्र का एक साधारण जानकार भी यह ताड़े विना नहीं रह सकता कि वह १३ वीं सदी की नहीं हो सकती। उसकी अधिकांश रचनाएँ बिलकुल आधुनिक हिंदुस्तानी या खड़ी बोली में हैं और कुछ पर ब्रज की छाप है। डॉक्टर हिदायत हुसेन ने नुसरो की रचनाओं की एक प्रामाणिक सूची तैयार की है जिसमें वे उसकी हिंदी कविताओं को कोई स्थान ७-कौन कहे कि डाक्टर ताराचन्द 'आँवर कुकुर बतासे भूकै