पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८३

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राष्ट्रभाषा ७३ नागर के विविध रूप साहित्यिक अभिव्यक्ति के वाहन बनकर काम में आने लगे थे। लेकिन नागर और उसके विविध रूपों के सिवा शौरसेनी-जैसी दूसरी प्राकृत भाषाओं के भी अपभ्रंशों का विकास हुआ था। ४- हिन्दुस्तान की आधुनिक भाषाओं का या तृतीय प्राकृतों का विकास इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है। नागर अपने एक प्रकार द्वारा राजस्थानी और गुजराती भाषाओं की जननी वनी, जिले टेस्सीटोरी ने प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का नाम दिया है। शौरसेनी अपभ्रंश का रूप हेमचन्द्र के ( सन् १९७२) प्राकृत व्याकरण में प्रगट हुआ है लेकिन शौरसेनी अपभ्रंश का नागर के साथ कोई सम्बन्ध निश्चित करता कठिन है। मालूम होता है कि शौरसेनी अपभ्रंश के रूप में और भी परिवर्तन हुए और के प्राचीन पश्चिमी हिंदी अवहत्य, काव्य भाषा आदि विविध नामों से पुकारे गये। ५-इस भाषा के सामने आने पर मध्यम प्राकृत भाषाएँ मंच से हट जाती हैं और तृतीय प्राकृत या न्यूइंडो-आर्यन' भाषाओं का समय शुरू होता है। पुरानी पश्चिमी हिन्दी, जो नवीन मध्यदेशीय भाषा का बहुत पहला रूप है, ११ वीं सदी में निश्चित रूप धारण करती मालूम होती है। इसी पुरानी पश्चिमी हिन्दी से उत्तरी मध्य देश की हिन्दुतानी (खड़ी) निकली मध्यदेश की ब्रज निकली और दक्षिण की बुंदेली निकली। १२ वीं सदी में ये सब बोलियाँ थीं। आगे की कुछ सदियों में इन्होंने साहित्यिक रूप धारण किया। ६--इन भाषाओं के विकास का जो अध्ययन मैंने किया है, उससे मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हिन्दुस्तानी ( खड़ी) ही