पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/८२

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डॉक्टर ताराचंद और हिंदुस्तानी योग नाटकों में स्त्री-पात्रों की भाषा के रूप में किया जाता था, वगैरः। ३-ईस्वी सन् की छठी सदी में आते-भाते प्राकृत भाषाएँ स्थिर और मृत भाषाएँ बन गई थीं । साहित्य तो तब भी उनमें लिखा जाता था, लेकिन उनका विकास बंद हो चुका था। इसी सदी में सामान्य बोलचाल की भाषाओं का, जिनमें से साहित्यिक प्राकृत का जन्म हुआ था, साहित्य की दृष्टि से उपयोग होने लगा। प्राकृत भाषाओं के इस साहित्यिक विकास के प्रचार को अपभ्रंश के नाम से पहचाना जाता है। इसका समय ईस्वी सम् ६०० से १००० तक रहा। इन अपभ्रंश भाषाओं में एक नागर भाषा ने महत्त्व का स्थान प्राप्त किया। उचर हिन्दुस्तान के ज्यादातर हिस्सों में इसी १-डाक्टर ताराचंद को पता नहीं कि नाट्यशास्त्र में स्पष्ट - "सांस्वेव हि शुद्धानु जातिधु द्विजसत्तमाः । शौरी समाश्रित्य भाषां काव्येषु योजयेत् ॥” १७/४७ इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि शौरसेनी ही उस समय की चलित राष्ट्रभाषा है। २–डाक्टर साहब ने बड़ी चातुरी से गोलमाल कर दिया है। अच्छा और उचित तो यह था कि 'नागर' की प्रकृति अथवा उसकी जननी 'प्राकृत' का पता बताते और फिर अपने उदार पांडित्य का प्रदर्शन करते। ३--दक्षिण भारत भी इससे अछूता न बचा या । यदि सर जार्ज ग्रियर्सन की 'भाषा पड़ताल' की भूमिका पृ० १२४ को देखें तो आपकी आँख खुले और पता चले कि वास्तव में वस्तुस्थिति क्या है !