पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/७६

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राष्ट्रभाषा संबंधी दस प्रश्न एक शख्स को लाजिमी तौर पर दोनों लिपियाँ सीखनी ही चाहिए, यह आग्रह श्यों किया जाता है ? उत्तरः--इसका भी एक ही जवाब है। मेरे श्राग्रह के रहते भी सिर्फ वे ही लोग इसे स्वीकार करेंगे, जो इसमें लाभ देखेंगे। जिन्हें एक ही लिपि और एक ही भाषा से संतोष होगा, वे मेरी दृष्टि में आधी राष्ट्रभाषा जाननेवाले कहलाएँगे। जिन्हें पूरा प्रमाणपत्र चाहिए, वे दोनों लिपियाँ और दोनों भाषाएँ सीखेंगे। इससे तो आप भी इनकार न करेंगे कि देश में ऐसे लोगों की भी काफी संख्या में जरूरत है। अगर इनकी संख्या बढ़ती न रही, तो हिंदी और उर्दू का रूप सम्मिलित न हो पायेगा और न कांग्रेस की व्याख्यावाली एक हिंदुस्तानी भाषा कभी तैयार हो सकेगी। एक ऐसी भाषा की उत्पत्ति तो हमेशा इष्ट है ही, जिसकी मदद से हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे की बात आसानी से समझ सकें। ऐसे स्वप्न का सेवन हम में से बहुतेरे कर रहे हैं किसी दिन वह सच्चा भी साबित होगा। ४---महात्मा गांधी की कांग्रेसबाली हिंदुस्तानी अभी तैयार नहीं हुई। उसकी तैयारी की योजना हो रही है । सो तो ठीक है। पर उसे अभी से 'बोल-चाल की भाषा, 'मातृभाषा' और 'राष्ट्रभाषा' कहा क्यों जा रहा है ? हमारा सीधा पक्ष तो यह है कि कांग्रेस अँगरेजों की देखादेखी यहाँ की सीयो हिन्दी का हिन्दुस्ताती कहने लगी और कुछ परदेशियों के दबाव के कारण दोनों लिपियों को अपनाने लगी। महात्मा जी कहते है कि हिन्दुस्तानी जैसी किसी नई भाषा के बिना हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे को समझेंगे कैसे ? हमारा उत्तर है-जैसे समझते आए हैं और अँगरेजी शासन के पहले जैसे समझते रहे हैं। और आज भी तो एक दूसरे को समझ ही रहे हैं? फिर यह कल्पना