पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/७३

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13 राष्ट्रभाषा विकास' करना चाहे, तो हमें हिंदी व उर्दू को और देवनागरी व फारसी लिपि को एकसा स्थान देना होगा। अन्त में तो जिले लोग ज्यादा पचायेंगे वही ज्यादा फैलेगी। बहुतेरी प्रान्तीय भाषाएँ संस्कृत से निकट सम्बन्ध रखती हैं और यह भी सच है कि भिन्न-भिन्न प्रांतों के मुसलमान अपने- अपने प्रांत की ही भाषाएँ बोलते हैं। इसलिए यह ठीक ही है कि उनके लिये देवनागरी लिपि और हिंदी आसान रहेगी। यह कुदरती लाभ मेरी योजना से चला नहीं जाता। बल्कि मैं यह कहूँगा कि इसके साथ मेरी योजना में फारसी लिपि सीखने १-महात्माजी का यह तर्क विलक्षण है। राष्ट्रभाषा का संपूर्ण विकास' एक बात है और 'राष्ट्र-लिमि' का समुचित उपयोग दूसरा । यदि श्राप प्रमाण चाहते हैं तो कल तक के 'खलीफा के देश टर्की को लें। वहाँ की राष्ट्रभाषा तो तुर्की है परन्तु राष्ट्र-लिपि कुछ हेर-फेर के साथ रोमन । महात्मा जी चले तो थे हिंदू-मुसलिम एकता को लेकर और टूट पड़े राष्ट्रभाषा पर जो न्याय नहीं नीति की बात भले ही हो । विचार करने की बात है कि जब इस्लाम के अड्डे में अरबी लिपि में राष्ट्र भाषा का विकास न हो सका तब संस्कृत भूमि भारत में उसका 'सम्पूर्ण विकास' किस न्याय से होगा। २-महात्मा जी की यह योजना यदि व्यक्तिगत 'लाभ' की दृष्टि से है तो उससे हमारा कोई विरोध नहीं, किन्तु यदि राष्ट्र की समष्टि- दृष्टि से है तो उससे हमारा गहरा मतभेद है। हम उसे राष्ट्र के लिये घातक समझते हैं। कारण, हम सभी 'योग' को 'क्षेम' नहीं मानते। कहते हैं कि मधु और घृत का समयोग विष हो जाता है। रही एकता सो उसका तो निश्चित नियम है 'समान शील और व्यसन' 'हिन्दी' और 'उर्दू' का शील और 'व्यसन' समान नहीं है अतएव की बात, "