पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/७२

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६२ राष्ट्रभाषा संबंधी दस प्रश्न प्रश्न :--अगर आप हिन्दू-मुसलिम एकता के लिए उर्दू सीखने को कहते हों, तो हिंदुस्तान के बहुत से मुसलमान उर्दू नहीं जानते । बंगाल के मुसलमान बंगला बोलते हैं और महाराष्ट्र के मराठी । गुजरात में भी देहात में तो वे गुजराती ही बोलते हैं। दक्षिण भारत में तामिल वगैरः बोलते होंगे। ये सब मुसलमान अपनी प्रान्तीय भाषाओं से मिलते-जुलते शब्दों को ज्यादा आसानी से समझ सकते हैं। उत्तर भारत की तमाम भाषाएँ संस्कृत से निकलती हैं, इसलिये उनमें परस्पर बहुत ही समानता है। दक्षिण भारत की भाषाओं में भी संस्कृत के बहुत शब्द आ गये हैं। तो फिर इन सब भाषाओं के बोलनेवालों में अरबी-फारसी- जैसी अपरिचित भाषाओं के शब्दों का प्रचार क्यों किया जाय? उत्तर:-आपके प्रश्न में तथ्य अवश्य है। मगर मैं आपसे कुछ ज्यादा विचार करवाना चाहता हूँ। मुझे कबूल करना चाहिए कि फारली लिपि सीखने के लिये जो श्राग्रह मैं करता हूँ, उसमें हिंदू-मुसलिम एकत्ता की दृष्टि रही है। देवनागरी और फारसी लिपि की तरह हिंदी और उर्दू के बीच भी बरसों से झगड़ा चला आ रहा है। इस झगड़े ने अब जहरीला रूप पकड़ लिया है। सन् १९३५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इन्दौर में हिन्दी की व्याख्या में फारसी लिपि को स्थान दिया। १९२५ में कांग्रेस ने कानपुर में राष्ट्रभाषा को हिंदुस्तानी नाम दिया। दोनों लिपियों की छूट दी गई थी, इसलिये हिंदी और उर्दू को राष्ट्रभाषा माना गया। इस सब में हिंदू-मुसलिम एकता का हेतु तो रहा ही था। यह सवाल मैंने आज नहीं उठाया। मैंने इसे मूर्त स्वरूप दिया, जो प्रसंगानुकूल ही था। इसलिये अगर हम राष्ट्रभाषा का सम्पूर्ण