पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/७

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अलग, अछूत अलग फिर इस अलमा के राज्य में राष्ट्र कहाँ है जो उसके लिये इतना ऊधम मचाया जा रहा है ? 'हिंदुस्तान' के पहले इस सारे देश का कोई नाम भी था ? संस्कृत भर चुक्षी, प्राकृत रही नहीं और 'भाषा' का नाम ही जाता रहा, फिर उत्तर कौन दे ? राष्ट्रभाषा पर विचार' में और कुछ नहीं इसी का रोना और इसी का समाधान है। उपाय आपके हाथ है, विचार इस ग्रंथ में । इल ग्रंथ के प्रायः सभी लेख कहीं न कहीं प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें केवल एक अप्रकाशित है जो पहले पहल इस संग्रह में प्रकाशित हो रहा है । 'हिन्दुस्तानी प्रचार-सभा' को छोड़ कर सभी पहले निकल चुके हैं। इनमें प्रथम दो तो भाषण हैं जो 'हरिद्वार' तथा 'प्रयाग में पढ़े तथा दिए गए थे। प्रयाग का भाषण मौखिक रूप में था। बात यह थी कि प्रयाग विश्वविद्यालय की हिन्दी परिषद की ओर से एक योजना प्रस्तुत हुई थी जिसके अनुसार २३ नवंबर सन् १९३९ ई० को 'राष्ट्रभाषा का स्वरूप' पर विद्वानों का विचार हुआ। विचार था कि 'भाषण' पुस्तकाकार प्रकाशित हो जायँ । फलतः उसे लिपियळू किया और सम्मेलनपत्रिका ज्येष्ठ-आषाद में वह छप भी गया। हरिद्वार का भाषण हिंदी-साहित्य सम्मेलन के राष्ट्रभाषा परिषद में अध्यक्ष-पद से पढ़ा गया था। हिंदी-हिंदुस्तानी का उदय श्रद्धेय टंडन जी के प्रतिवाद में लिखा गया था। और 'सम्मेलन और जनपद जनपद-आंदोलन की रोकथाम के लिये जनपद-समिति के संयोजक के रूप में। शेष के विषय में कुछ विशेष परिचय की आवश्यकता नहीं। हाँ यहाँ इतना और भी स्पष्ट कर देना है कि राष्ट्रभाषा पर भली भाँति विचार करने की दृष्टि से ही इस संग्रह में महात्मा गांधी, श्री काका कालेलकर, डाक्टर ताराचंद तथा श्री सत्यनारायण के विचार दिए गए हैं जो उन्हीं के लेखों में व्यक्त है और जिनको और भी खोल कर दिखाने के लिए उन पर अपनी