पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६९

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राष्ट्रभाषा बनचर की दशा में था । अतएव हमारा तो निश्चित मत है कि हम अपनी भाषापरम्परा को छोड़ नहीं सकते और हमारी राष्ट्रभाषा भी राष्ट्र की भाषा को तिलांजलि दे फारसी-अरवी या उर्दू नहीं वन सकती। फ़ारसी-अरबी शब्दों का कोई झगड़ा हमारी राष्ट्रभाषा के सामने नहीं है। 'मतरूक' और 'मुब्तजल' से उसका दामन पाक है। उसका मौलवी बच्चा 'फारसी अरबी' झाड़ सकता है पर उसका हर एक बच्चा उसके लिये विवश या बाध्य नहीं किया जा सकता। उसकी भाषा उसकी रुचि और विषय के अनुकूल होगी। किसी कोष या लुग़त के मुताबिक नहीं। यदि इतने किसी को सन्तोष नहीं होता तो न सही। वह चाहे जिस 'कामकाजी' या 'मुगली बानी' की ईजाद करे पर कृपया राष्ट्र भाषा को बदनाम न करे। संसार की कोई भी राष्ट्रभाषा परदेशी शब्दों पर नाज नहीं करती बल्कि उलटे उन्हें 'धत्त' ही सुनाती है। हिन्दी तो 'वस' का नाम भी नहीं लेती। फिर उस पर यह वज्रपात कैसा ? राष्ट्रभाषा का कागदी स्वरूप यानी लिपि भी विवादग्रस्त है। जो लोग नागरी को अच्छी नहीं समझते वे शौक से अपनी किसी अच्छी लिपि का अपने अच्छरों में व्यवहार करें और चाहें तो किसी प्रदर्शिनी में उसका उद्घाटन भी कराते रहें पर कृपया भूल न जायँ कि यह वही लिपि है जिसमें लोदियों और सूरियों के फारसी फरमान तक लिखे गए और अपनी साधुता की रक्षा करने में समर्थ रहे । श्राज अरबी लिपि के पुजारियों को जानना होगा कि क्यों डाक्टर हफीज़ सैयद तथा उनके आलोचक स्वनामधन्य मौलाना डा० अब्दुल हक एक पद का अर्थ ठीक ठीक न समझ सके। देखिए कितना सीधा पद और कितना सादा अर्थ है, पर