पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६८

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप उर्दू के धनी वह हैं जो दिल्ली के हैं रोड़े, पंजाब को मस' उससे न पूरब न दकन को। बुलबुल ही को मालूम हैं अन्दाज़ चमन के, क्या बालमे गुलशन की खबर जाग वो जगन को ।। किंतु हिंदी शब्द ही नहीं, हिंदी भाषा में भी पाक इसलाम की पूरी पूरी प्रतिष्ठा है और नर मुहम्मद ने तो साफ साफ़ कह भी दिया है- दीन जैवरी करकस माजेउ। जिसे इसमें तनिक भी संदेह हो वह हिंदी के सूफी कवियों का अध्ययन करे और देखे कि सच्चे इसलाम की आत्मा कहाँ बोल रही है-'शराब' या 'सलात' में । फारस या हिंदुस्तान में। यही क्यों ? यदि शीश्रा और सुन्नी का समन्वय देखना हो तो हिंदी का पाठ करो। जायसी के आखिरी कलाम' को पढ़ो और देखो कि हिंदी किस 'हुमा' का नाम है। राष्ट्रभाषा के स्वरूप की चर्चा हो चुकी और यह भी बता दिया गया कि किसी भी राष्ट्र के जीवन में उसके शब्दों का क्या महत्त्व होता है। आप जानते ही हैं कि हमारे 'क्षौम' और 'कौशेय' किस बात की गवाही देते हैं । पर हमारेबड़े से बड़े मौलाना यह नहीं समझ सकते कि इनका अर्थ क्या है। उनके यहाँ तो इनका नाम लेना भी हराम है। पर हमारी राष्ट्रभाषा इनको छोड़कर अपने अतीत और अपनी राष्ट्रीयता का गर्व नहीं कर सकती । वह अन्य भाषाओं के सामने डट कर सिद्ध नहीं कर सकती कि उसकी कोख के सपूत उस समय क्षुमा (अलसी) और कोश ( रेशम के कोआ) से वन बनाया करते थे जब आजकल का सभ्य संसार १--स्पर्श । २--फौना। ३--चील ।