राष्ट्रभाषा देता है। मजहब की दृष्टि से देखा जाय तो हिंदी अरवी ज़बान का लफ्ज़ है और हिंदुस्तानी खुरासानी या फारसी। हिंदुस्तानी का 'हिंदू' तो यारों को नहीं खटकता पर वह 'हिंदी' उनकी पाक निगाह में गड़ जाती है जो सच पूछिए तो उन्हीं की देन है। इसका भी एक रहस्य है। 'हिंदी' में वह जादू है और है वह राष्ट्र-गौरव जो लड़ाकू अरवों को भी यह सबक सिखा सकता है कि 'हिंदी तलवार' और हिंदी नेजा' का गुण-कीर्तन किस तरह इसलाम के पूर्वपुरुष किया करते थे और 'मसहफ' उठानेवाले मियाँ 'मसहफी भी अभी उस दिन अपनी अनोखी ज़बान को 'हिंदुवी ही कहते थे। उनकी लाचारी पर गौर तो कीजिए- मसहफ़ी फारसी को ताक पर रख अब है अशार हिंदी का रवाज लाचारी इसलिए कि-- (च्या रेखता कम है 'मसहफ़ी' का बू आती है उसमें फारसी को ।) अस्तु, यह इसी फारसी की बू का असर है कि हज़रत 'अरशद' गोरगानी का तुर्रा है कि- ज़बाने उर्दू का था लो कुरा तो 'मसही उसके मसहफ़ी थे, शालीज़ लफ्जों से मंतरों से भरी है वह ही जत्राने उर्दू। 'गलीज़ लफ्जों और मंतरों' से मुगलज़ादे गोरगानी अरशद का अभिप्राय क्या है इसके कहने की आवश्यकता नहीं । उर्दू में पढ़ाया तो यह जाता है- मालूम है हाली' का है जो मौलिदोमंशा' उर्दू से भला वास्ता हज़रत के वतन को ! १-जन्मस्थान
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