पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६५

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राष्ट्रभाषा स्वरूप स्थिर करें। घटना हैदराबाद के निज़ाम राज्य की है। वहाँ के स्वर्गीय डिप्टी कमिश्नर मौलवी मुहम्मद अज़ीज़ मिर्जा साहब फरमाते हैं- मेरा गुज़र एक बहुत ही छोटे गाँव में हुश्रा। वहाँ असामियों को तलब करके उनके हालात दरियात किए गए तो एक मुसलमान भी लंगोटी बाँधे श्राया और उसने अपना नाम अशवंत खाँ बताया । मैंने उससे उर्दू में गुफ़्तगू करनी चाही। मगर अब वह अच्छी तरह न समझ सका तो मरहठी में बातचीत की जिसमें वह खूब फर्राटे उड़ाता था और यह देखकर मैंने उससे पूछा कि श्राया वह अपने घर में भी मरहठी बोला करता है। यह सुनते ही उसका चेहरा सुर्ख हो गया और कहने लगा "साहब मैं मरहठी क्यों बोलने लगा! क्या मैं मुसलमान नहीं ?" ऐसी ही हालत ब्रह्मा में भी देखी कि गो मुसलमानों की मादरी ज़बान ब्रह्मी है लेकिन वह उर्दू को अपनी कौमी और मज़हबी ज़बान समझते हैं" ( ख्यालाते अजीग, पृ० १७१: ज़माना प्रेस, कानपुर) 'मतरूक' 'मुन्तजल' और 'मज़हब' की त्रिपुटी में अलख जगानेवाली उर्दू ज़बान की माया आपके सामने है । उसका सञ्चा हाल यह है कि- हिंदुओं के अदब में जो खूचियाँ हैं उर्दू जबान उनसे महरूम रही। संस्कृत ज़बान दुनिया की वसीअतरीन' ज़बानों में है और उसका दरजा लातनी, यूनानी और अरबी से कम नहीं है। यूरप की ज़बानों ने, जो तरकीयाफ्ता कहलाती हैं, लातनी और यूनानी ज़बानों के अदब से फायदा उठाया है क्योंकि लातनी और यूनानी उसी बरे-आज़म की ज़बाने थीं जिनमें यह तरकीयाफ्ता ज़बाने बोली जाती हैं। मगर १-विस्तृततम । २-महाद्वीप ।