पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६३

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राष्ट्रभाषा रूप में चली जा रही है। पाककला के विषय में इससे अधिक और क्या कहा जाय कि---- रसवती, पाकस्थान, महानस ये तीन नाम रसोईघर के हैं और जो उस रसोई के स्थान का अध्यक्ष है वह पौरोगव' संज्ञिक है । सूपकार, बल्लब, पारालिक, श्रधिसिक, सूद, औदनिक, ये पौरोगव सहित सात नाम रसोई बनानेवाले के हैं। श्रापूधिक, कांदविक, भक्ष्यकार; ये तीन नाम मक्ष्यकार यानी पुश्रा आदि पकवानों के बनानेवाले के हैं। इसको हलवाई भी कहते हैं । (अमरकोशः, मुंबई वैभवाख्ये भुद्रितः पृ० १६६, भाषाटीका) अब तो आपको समझ में यह बात आ ही गई होगी कि किसी भी राष्ट्र के जीवन में शब्दों का क्या महत्त्व है और क्यों भारत में शब्दब्रह्म की इतनी प्रतिष्ठा है। फिर भी परदेशी संस्कृति- प्रेमियों के हृद्य को अच्छी तरह समझने तथा इस दिवांधता को दूर करने के लिये उनके 'मतरूक' और 'मुब्तजल' के सिद्धांतों को भलीभाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए। अच्छा हो, इसे भी किसी कुलीन देहलवी मुसलमान के मुँह से सुनें। लीजिए उसका कहना है- आतिश व नासिख ने तो इतना ही किया कि जो अल्फाज करीबुल्मर्ग' थे उनका अमदन तर्क कर दिया | तरकीब नई थी। लोगों का पसंद आई । दूसरों ने उन अल्फ़ाज़ को भी तर्क करना शुरू कर दिया जो रोजमर्रा ४ में जारी थे। मौलवी अली हैदर साहब तबातबाई लिखते हैं कि लखनऊ में एक साहव मीर अली औसत रश्क थे जिन्होंने चालीस पैंतालीस लफ़्ज़ शेर में बाँधने तर्क कर दिए ये १-मृतप्राय । २-जान बूझकर । ३-त्याज्य । ४-बोलचाल ।