पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६२

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप 'तुर्की शब्द' के संबंध में तो इतना कह देना पर्याप्त था कि तुर्की भाषा में टवर्ग नहीं। परंतु जब हमारे एक सपादलक्षी हिंदी आलोचक भी 'रोटी' और 'नायक' को अहिंदी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं तब उतने से ही काम न चलेगा। उन्हें दिनदहाड़े बताना होगा कि रोटी हिंदवी है- नान बताज़ो खुब्ज़ रोटी हिंदवी । (खालिकबारी)। यही नहीं बाबर बादशाह को भी यहाँ का 'रोटीपानी' ही बहुत दिखाई देता है । उसका कितना साफ़ कहना है- मुजका न हुआ कुज हवसये मानिक वो मोती, फुकरा हालीन बस बुल्गुसिदुर' पानी वो रोती! याद रहे उर्दू के कोपकारों ने भी रोटी को हिंदी शब्द ही लिखा है और उसे 'मुसलमान मुरदे के चहलुम का खाना' भी बताया है। रही 'संस्कृत में रोटी कोई लाज नहीं है' की बात । सो उसके विषय में निवेदन है कि ध्यान से पढ़ें और तनिक देखें तो सही कि स्थिति क्या है ? 'भाव प्रकाश का कहना है--- शुष्कगोधूमचूर्णेन किञ्चित् पुष्टाञ्च पोलिकाम् । तप्तके स्वदयेत् कृत्वा भूयोऽङ्गारेऽपि तां पचेत् ॥ सिद्धषा रोटिका प्रोक्ता गुणानस्याः प्रचक्ष्महे । रोटिका बलकृटुच्या वृंहणी घातुवद्धिनी। बातघ्नी कफकृद् गुर्वी दीप्तानीनां प्रपूजिता । कहने का तात्पर्य यह कि 'रोटिका' स्वतः संस्कृत है। फारसी, अरबी, तुर्की या तातारी नहीं। साथ ही यह भी ध्यान रहे कि 'शष्कुलीशब्दमात्रेण किं दूरं योजनत्रयं की कहावत आज भी इसी १–मुझे माणिक्य और मोती की कुछ चाह नहीं है। दीनजनों की अवस्था में तो रोटी और पानी ही पर्याप्त है।