पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/६१

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राष्ट्रभाषा खोराक के बारे में 'खाँ' महोदय का दावा है-- खोराक और गिज़ा' के सिलसिला में संस्कृत में रोटी तक के लिये कोई लफ्ज़ नहीं है । इसे गेहूँ से बनी हुई गिज़ा कहते थे । मुख्तलिफर सूत्रों में इसके अलहदा-अलहदा नाम हैं | अब तक हिंदुस्तान के देहातों में खाने की श्राम इस्तेमाल की चीज़ भुना हुअा ग़ल्ला है । चूंकि कची और पक्को गिजा का ताल्लुक हिंदू धरम से है इसलिए किसी ऐसी ग़िज़ा का नाम पुरानी ज़बानों में नहीं पाया जाता जो छूतछात के असरात से खाली हो और इसके साथ साथ इंसानी शिन- अत का भी इसमें दखल हो। हिंदुस्तान के अलावा रोटी हर जगह तनूर में पकती है और नानबाई, हलवाई, कबाबची, क्वाफ़रोश वगैरह का तखैय्युल' ही ऐसी अवाम से बावस्ता है जिनमें छूतछात न हो (वही, पृ० ३८०) रोटी के इस घोर युग में रोटी की बात यदि यही समाप्त हो जाती तो राष्ट्रभाषा के स्वरूप के संबंध में हम इसे इतना महत्व नहीं देते और इसे भी एक खुदाई शान समझकर कुछ आगे की बात बताते । पर करें क्या ? राष्ट्रभाषा के परम भक्त देशरत्न राष्ट्रपति श्री राजेंद्र बाबू तक पर इसी असत्य उर्दवी खोज का प्रभाव पड़ गया है। श्राप कहते हैं कौन कह सकता है कि रोटी' जिसके बिना हम रह नहीं सकते, हिंदुस्तान में कहाँ से पाई और इसका असली रूप क्या था ? सुना कि यह तुर्की शब्द है। (ना०प्र० पत्रिका, संवत् १९६६, पृ०, पर उद्धृत) १-भोजन । २---विभिन्न । ३-प्रभावों । ४---शिल्प । भाव ६.---कौमों । ७-संबद्ध ।